गुण रत्नों की भण्डार - साध्वी रतनश्री
‘शासनश्री’ साध्वी रतनश्रीजी मेरे परम उपकारी थे। हम दो महीने के दीक्षित थे, तब गुरुदेव ने महत्ती कृपा कर हम दोनों बहनों को आपको वन्दना करवाई। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें आपकी सन्निधि, आपके चरणों में रहकर साधना करने का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग 12 वर्ष बीत गए आपके चरणों में, आपके आंचल में, हम बच्चे की तरह रहते। पता ही नहीं चला जिन्दगी के बारह वर्ष बीत गए। हमसे गलती भी होती तो आप उसे सुधारकर पुनः नहीं दुहराएं ऐसी प्रेरणा देती रहती। मां जैसे अपने बच्चे को आगे बढ़ाती है, उसी प्रकार आप एक मां की तरह हमारे सर्वांगीण विकास मे योगभूत बनीं। आपने हमें बहुत संस्कार दिए। आप हमें हमेशा अपने आचार के प्रति, मर्यादा प्रति सजग करते। आप में गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव था। आप फरमाते - जो अच्छा होता है वह सब गुरु कृपा से होता है और जो बुरा होता है वह अपने प्रमाद से होता है। आप में अनेक गुण थे। मैं कुछ गुणों का वर्णन करना चाहती हूँ :-
गुरु निष्ठा– आपमें अद्भुत गुरु निष्ठा थी। आप बात-बात, प्रवचन-प्रवचन में गुरु के गुण गाती थी। आपको जहां गुरुदेव ने चातुर्मास फरमाया, वहां आप पधारे। आपने चातुर्मास कभी नहीं बदलाया। इसलिए स्वयं गुरुदेव श्री तुलसी ने फरमाया था- रतनश्री को जहां भेजा, वह गयी। यह सब गुरु कृपा और आपके गुरु चरणों में समर्पण की शक्ति थी। सतत अप्रमत्तता– आप निरन्तर स्वाध्याय में रत रहती थी। ध्यान, जप, तत्व चर्चा आदि में आप संलग्न रहती थी। भगवान महावीर के वचनों को आपने सार्थक किया ‘समयं गोयम! मा पमायए - हे गौतम! तूं क्षण भर भी प्रमाद मत कर। यह आगमवाणी आपके जीवन में चरितार्थ होती थी। संयम निष्ठा– आपका जीवन बहुत संयमित था। वाणी का संयम था, आप अनावश्यक नहीं बोलते। काय में भी संयम, आप 9 वें दशक में भी बिना सहारे एक आसन में लम्बे समय तक विराजते थे। आहार संयम– बहुत कम द्रव्यों का आप उपयोग करते थे। आहार में आप प्रायः मौन रहते थे।
मर्यादा और अनुशासन के प्रति पूर्ण सजगता–
संथारे की प्रबल भावना - जीवन के अन्तिम वर्षों में मैंने अनुभव किया, आप बहुत बार फरमाते- मुझे संथारा करना है और उस भावना को आपने अपने दृढ़ मनोबल से स्वीकार कर पूर्ण किया। पूर्व आभास– कुछ समय पूर्व आप बहुधा फरमाते थे कि मेरे जीवन का अब समय ज्यादा नहीं है। मैं पूछती- महाराज! अभी 95 वर्ष तक तो हो ना। वो बोलते- नहीं। आपने अपने दृढ़ मनोबल से अपने सपने को साकार किया। जीवन का अंतिम पड़ाव– जीवन के अंतिम पड़ाव में आपके फेफड़े में पानी भर गया। उस पीड़ा को आपने बहुत सम भाव से सहन किया, थोडे़ समय बाद ही हार्ट में समस्या हुई। थोड़ा समय बीता और अचानक खांसी का प्रकोप बढ़ गया। रात-दिन आप खांसी से जूझ रहे थे और फिर डॉक्टर के परामर्श से चेकअप कराया तो टी. बी. की बिमारी से आप ग्रस्त हो गई। उसकी दवाई चालू की और समस्या आने लगी। जी घबराना, भूख न लगना, आहार पूरा नहीं कर पाना आदि। फिर भी आपने बहुत समता से सहा और अचानक बहुत तेज बुखार आ गया जिससे आपको हॉस्पीटल मे भर्ती कराया गया। आप वहां लगभग 6 दिन रहीं। अन्तिम दिन आपको आई.सी.यू. में भर्ती किया गया। आप उस दिन बहुत बैचेन रही और एक ही बात- नयोडा मुझे यहां से ले जाओ। आपकी प्रबल भावना देखते यह निर्णय किया गया कि अब हमें ठिकाने जाना चाहिए। आप ठिकाने आते ही पहले दिन उपवास और दूसरे दिन यावज्जीवन तिविहार संथारा पचख लिया। उस वेदना में आपने यह निर्णय लिया कि मुझे आध्यात्मिक चिकित्सा करनी है और आपने वीरता का परिचय दिया। महरौली के उस अनुकंपा भवन में जहां शासनमाता ने अन्तिम सांस ली, उसी स्थान पर संथारा पचख कर नया इतिहास रच दिया।