साधना के क्षेत्र में उपादान और निमित्त दोनों महत्त्वपूर्ण हैं : आचार्यश्री महाश्रमण
बड़नगर, 1 जून, 2021
मालवा क्षेत्र का एक नगर बड़नगर जहाँ हमारे धर्मसंघ के महातपस्वी मुनि कोदर जी का जन्म हुआ था। पूज्य जयाचार्य ने अ भि रा शि को नम्: का जो मंत्र दिया था वे ही कोदरजी इस बड़नगर धरा से थे। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी का आज उन महातपस्वी मुनि कोदरजी की पावन जन्मभूमि पर पदार्पण हुआ है।
परम पावन ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे पाँच-पाँच ज्ञानेद्रियाँ हैं। इंद्रियों के विषय यदा-कदा इंद्रियों के द्वारा गृहीत भी होते रहते हैं। शास्त्रकार ने एक महत्त्वपूर्ण बात बताई है कि ये पदार्थ है काम-भोग, शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श ये समता भाव को पैदा नहीं करते। ये पदार्थ न ही मन में विकृति को पैदा कर सकते हैं। परंतु जो व्यक्ति जो प्राणी, जो आत्मा उन विषयों के प्रति, काम भोगों के प्रति प्रद्वेष करता है या परिग्रहण-राग करता है, वह अपने मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है।
हम अनेकांत-सापेक्ष दृष्टि से ध्यान दें। दो शब्द हैंउपादान और निमित्त। कार्य होता है, तो उसकी निष्पत्ति की पृष्ठभूमि में कारण भी होता है। कारण के बिना प्राय: कार्य हो नहीं सकता। घड़ा बना है, तो कारण भी है। मिट्टी, कुंभकार, साधन सामग्री कारण है। कारण के मुख्य दो प्रकार हैंएक उपादान कारण, दूसरा निमित्त कारण।
पदार्थ चित्त में विकृति लाने के उपादान कारण नहीं हैं, मूल कारण नहीं हैं। वे निमित्त बन सकते हैं। पहले उपादान हो तो निमित्त का बल चलेगा। अकेला निमित्त कुछ नहीं कर सकता। मिट्टी होगी तो ही घड़ा बनेगा। हमारे जीवन में हम उपादान और निमित्त इनको देख सकते हैं।
हम आज मालवा क्षेत्र के बड़नगर आए हैं। पूज्य कालूगणी के जीवन काल का अंतिम मर्यादा महोत्सव का क्षेत्र है। बड़नगर के हमारे विशिष्ट तपस्वी मुनि कोदरजी स्वामी से जुड़ी हुई यह बड़नगर की भूमि। कोदरजी स्वामी का नाम तो कितने लोगों की जबान पर आता होगा। ॐ अ भि रा शि को नम्: को नम: एक मंत्र सा बना हुआ है। इसमें ये कोदार जी स्वामी का नाम है। मैं कभी-कभी दोहा भी बोलता हूँ
कोदर तपसी रामसुख, पीथल मोती हीर।
भोप् दीप, सुख सामजी, भिक्खु सिक्ख बड़वीर॥
मुनि कोदरजी हमारे सम्माननीय-स्मरणीय विशिष्ट संत थे। 14-15 वर्ष के संयम-पर्याय में कितनी तपस्याएँ कर ली। वेणीरामजी स्वामी जैसे संत का निमित्त मिला और वैराग्य उत्पन्न हो गया। संतों का संयोग मिलना निमित्त है। मूल उपादान है, भीतर का क्षयोपशम का होना।
उपादान तो भीतर का भाव है या वीतराग की साधना है। शास्त्रकार की बात है कि उपादान की दृष्टि से ये काम भोग विकृति पैदा नहीं कर सकते। पर निमित्त तो बन सकते हैं। निमित्तों से भी बचाव रखो। निमित्त की भूमिका पदार्थ की भूमिका-बल रह सकती है।
साधना के क्षेत्र में उपादान का बड़ा महत्त्व है, पर निमित्त भी चाहिए। यह एक दृष्टांत से समझाया कि स्थिति-निमित्त का अंतर है। साधना है, तो शेर भी भयभीत नहीं कर सकता। हम अपने जीवन में निमित्त और उपादान को अच्छी तरह समझ लेते हैं, तो जीवन के विभिन्न पहलुओं की हम गहराई से व्याख्या कर सकते हैं। गहराई से समझ सकते हैं और अपने जीवन को सही दिशा में संभवत: आगे भी बढ़ा सकते हैं।
आज बड़नगर आना हुआ है। खूब यहाँ धार्मिक साधना चलती रहे। लोगों में खूब अच्छी भावना बनी रहे। सम्यक् दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि महापुरुष की सन्निधि दुर्लभ है। संत दर्शन और संत कथा होना दुर्लभ है, आज बड़नगर में दोनों चीजें एक साथ उपलब्ध हो रही हैं। संतों का सान्निध्य दिशा सूचक यंत्र की तरह होता है। हमें मार्गदर्शन मिलता है। संत पुरुष सोए पुरुषों की चेतना को जागृत कर देते हैं।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि जब कषाय तीव्र होते हैं, तो व्यक्ति का दिमाग गरम हो जाता है। तीव्र कषाय के तीन लक्षण हैंआत्मप्रशंसा, पुण्य में दोष दर्शन और वैर को चिरकाल तक धारण करना। हम अहंकार, छिद्रान्वेषण और वैरभाव से दूर रहे।
पूज्यप्रवर के स्वागत में वर्धमान स्थानकवासी जैन संघ से राजकुमार जैन, त्रिस्तुति जैन संघ से शांतिलाल गोखरू, आदिश्वर श्वेतांबर जैन संघ से मनीषराज कटारिया, मारू परिवार से ज्योति मारू व बहनों ने गीत, श्रेयांस मारू, गौरव मारू, चौधरी परिवार की बहनें। अमित रति मारू ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि मनन कुमार जी ने किया।