बंधन से मुक्त कराने वाला वीर होता है प्रशंसनीय : आचार्यश्री महाश्रमण
सत्पथ दिखाने वाले तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि जो अच्छा कार्य करता है, वह प्रशंसा का पात्र बन जाता है। आयारो आगम में कहा गया है कि वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो बन्धे हुए व्यक्तियों को मुक्त करता है। दीक्षा लेना भी वीरता का कार्य होता है। चार चीजें दुर्लभ हैं- मनुष्य जन्म, धर्म का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा और संयम में वीर्य करना। जो व्यक्ति संयम के वीर्य से युक्त होता है, संयमवीर होता है, वह व्यक्ति प्रशंसित होता है। साधना का पथ भी एक संग्राम है। इसमें भी संघर्ष होता है। मोहनीय कर्म का औदयिक भाव और मोहनीय कर्म का क्षायोपशमिक भाव इन दोनों में युद्ध होता है। यह भाव जगत में होने वाला युद्ध है। कभी वह उदय रूप में बाहर भी आ जाता है।
अपने आप से युद्ध करो, बाह्य जगत से तुम्हें क्या काम। जो अपने से अपने को जीत लेता है, वह सुख को प्राप्त हो जाता है। जो व्यक्ति काम भोग, राग-द्वेष, आसक्ति आदि के बंधन से अपनी आत्मा को मुक्त कर दूसरों की आत्मा को पापों से मुक्त कराता है, स्वयं तरते हुए दूसरों को तारने वाला होता है, वह वीर प्रशंसनीय होता है। सिद्ध तो स्वयं मुक्त हैं, उनके तो नाम स्मरण से ही कल्याण हो सकता है। आचार्य, उपाध्याय, साधु ये भी दूसरों को बंधन से मुक्त करने वाले हो सकते हैं। मंत्री मुनि सुमेरमलजी ने भी अनेक बालकों - युवकों को गार्हस्थ्य से मुक्त कराया था।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने मंगल उद्बोधन देते हुए कहा कि आचार्य भिक्षु ने सच्चे साधु के लक्षण बता दिये थे। लक्षणों से व्यक्ति की पहचान हो सकती है। सम्यकत्वी के पांच लक्षण बताये गये हैं- शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य। इन पांच लक्षणों से व्यवहार के धरातल पर सम्यकत्वी की पहचान की जा सकती है, निश्चय में तो केवली जानें। जब तक अनन्तानुबंधी कषायों का उदय रहता है, सम्यकत्व नहीं आ सकता है। जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ के अध्यक्ष मोहनलाल गादिया के अपनी भावना अभिव्यक्त की। संघ की छात्राओं ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।