
माता-पिता और गुरु के उपकार रूपी ॠण से उॠण होने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 10 अक्टूबर, 2021
समयज्ञ, उपायज्ञ आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में दस प्रकार के पुत्र बताए हैं। बेटा-पुत्र दस प्रकार के होते हैं। प्रश्न होता है कि पुत्र कौन होता है? जो अपने पितरों, कुल को पवित्र करते हैं अथवा अपने वंश की मर्यादाओं की रक्षा करते हैं, वो पुत्र होते हैं। पुत्र यानी संतति। पुत्र के दस प्रकारों में पहला हैआत्मज। अपने पिता से पैदा होने वाला पुत्र आत्मज कहलाता है। दूसरा प्रकार हैक्षेत्रज। नियोग निधि से उत्पन्न होने वाला क्षेत्रज पुत्र होता है। तीसरा प्रकार हैदत्तक। गोद लिया हुआ बेटा। चौथा हैविद्यक। जो एक विद्या-शिष्य होता है, वह भी एक प्रकार का पुत्र होता हैं। पाँचवाँ हैऔरस। अपना बेटा नहीं है, पर उसके प्रति हृदय में स्नेह का भाव आता है, उसे पुत्र जैसा मान लेता है। छठा प्रकार हैमौखर। वाक्पटुता के कारण पुत्र रूप में स्वीकृत। सातवाँ हैसंवीर। कोई लड़का बड़ा बहादुर है, उसको बेटे के रूप में मान लेना। आठवाँ प्रकार हैसंवर्धित। कोई अनाथ बच्चे को लेकर उसका पालन-पोषण करना। नौवाँ प्रकार हैऔपयाचितक। कोई देवता की आराधना से पुत्र मिला है या सेवक है, सेवा करने वाला है। दसवाँ प्रकार हैधर्मांते वासी। जो धर्म शिष्य होता है, वह धर्मांतेवासी पुत्र हो जाता है
पुत्र कुल मर्यादा की रक्षा करने वाला होता है, तो आगे से आगे वंश परंपरा चलेगा। कोई-कोई पुत्र बहुत योग्य निकलते हैं। कई पुत्र पिता से भी ज्यादा क्षमतावान, योग्यतावान निकल जाते हैं। जैसे अगस्त्य ॠषि हैं, जो घड़े में उत्पन्न हुए माना जाता है। घड़े में तो सीमित पानी समाता है, पर अगस्त्य ॠषि तो समुद्र का पानी पी गए थे। इतनी क्षमता थी। वह पुत्र धन्य है, जो पिता से आगे निकल जाए। पिता के लिए भी गौरव की बात होती है। पिता का पुत्र के प्रति फर्ज होता है, तो पुत्र का भी पिता के प्रति फर्ज होता है। पुत्र को माता-पिता आगे बढ़ाने वाले होते हैं, तो पुत्र का भी कर्तव्य होता है कि बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा का ध्यान रखो। जेसे नारियल पहले पानी लेता है, बाद में देता हैं। संसार में माता-पिता का उपकार और बाद में धर्म-गुरु का उपकार, बाद में उपकारी का जीवन में बड़ा उपकार होता है। उपकारी के उपकार से जितना हो सके उॠण होने का प्रयास करना चाहिए।
भगवान महावीर ने माता-पिता का कितना ध्यान दिया। उनकी उपस्थिति में संयम ग्रहण ही नहीं किया। बड़े-बड़े पुरुषों का माँ के प्रति विशेष सम्मान होता है। चाहे आदमी कितना ही बड़ा बन जाए, पर वह माँ के लिए तो बेटा होता है। इसी तरह गुरु के उपकार से कैसे कितना उॠण हो सकता है। आर्थिक दृष्टि से जो उपकारी होते हैं, उनका उपकार भी नहीं भूलना चाहिए और भी उपकारी हो सकते हैं। उपकारी के प्रति सम्मान का भाव रहे। जैसा अवसर हो उनके प्रति प्रत्युपकार का भाव रहे।
इस तरह ठाणं में दस प्रकार के पुत्र बताए गए हैं। अनेक रूपों में पुत्र हो सकते हैं। पुत्र भी धर्म की दृष्टि से आगे बढ़ें। माता-पिता भी धर्म की दृष्टि में आगे बढ़ें। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने बारे में, परिवार, समाज और राष्ट्र के बारे में सोचता है। चार प्रकार के मनुष्य बताए गए हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, लक्ष्य का निर्धारण करना। लक्ष्य अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे आध्यात्मिक, दार्शनिक, सामाजिक या भौतिक। सबका अपना-अपना महत्त्व होता है। कुछ व्यक्ति लक्ष्यहीन होते हैं, वे भौतिकता में विश्वास रखते हैं। लक्ष्य निर्धारण के चार बिंदु बताए गए हैं। लक्ष्य पोजीटिव, परपजफुल, पे्रक्टिकल और फ्लेक्सिबल हो। पूज्यप्रवर ने सुंदर यात्रा का संकल्प लिया और सफलतापूर्वक यात्रा कर अपने लक्ष्य को साधकर पधारे हैं। संकल्प एक रेश्मी धागा होता है, यह एक कथानक से समझाया।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि साधु को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए उसे और अधिक सुदृढ़ बनाना चाहिए। मुनि को बहुत बार आहार का प्रयोग नहीं करना चाहिए। साधना के द्वारा शक्ति का ऊर्ध्वगमन होता है और भोगों से शक्ति का अधोगमन होता है। ऊणोदरी और भिक्षाचरी के महत्त्व को समझाया। मुनि दिनेश कुमार जी ने कार्यक्रम का संयोजन करते हुए बताया कि विनम्रता बहुत बड़ी शक्ति होती है। विनम्रता से गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं।