संयम और सेवा जीवन में आए तो जीवन सार्थक : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 3 अक्टूबर, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि, तेरापंथ के भाग्य-विधाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में संज्ञा के दस प्रकार बताए गए हैं। संज्ञा के दो अर्थ हो सकते हैं। पहला अर्थ अबोध और दूसरा मनोविज्ञान। अबोध एक ज्ञान है, वो संज्ञा का संवेदात्मक रूप में ज्ञान हो, स्मृति हो। वृत्ति भी कहा जा सकता है। वृत्ति ज्ञानात्मक भी हो सकती है, भावात्मक भी हो सकती है। भीतर की हमारी वृत्तियाँ हैं, वे संज्ञाएँ हैं। दस प्रकारों में आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा, लोक संज्ञा और ओघ संज्ञा है। ये प्रथम आठ और दो दस प्रकार हैं। आठ प्रकार हैं, वे संवेगात्मक, म्उवजपवद प्रधान है। शेष दो ओघ संज्ञा और लोक संज्ञा ये इमोशन से इतने जुड़े हुए नहीं हैं। ज्ञान से ही मुख्यतया जुड़े हुए हैं। ये दोनों ज्ञानात्मक हैं। ओघ संज्ञा की एक सामान्य अवबोध, दर्शनोपयोग, सामान्य प्रवृत्ति के रूप में उल्लिखित किया गया है। ये ज्ञान इंद्रिय के निमित्त से भी होता है, अनेन्द्रिय मन के निमित्त से भी हो जाता है। पाँच इंद्रियों से भी हमें ज्ञान होता है। ओघ ज्ञान है, वो थोड़ा सा इंद्रियों से हटकर, कोई चेतना का ऐसा ज्ञान होता है। पाँच इंद्रियाँ बताई गई हैं। वैज्ञानिक जगत में एक छठी इंद्रिय मानी गई है, वो छठी इंद्रिय ओघ संज्ञा की हो सकती है। यह अतीन्द्रिय अंत:करण की स्थिति है।
कई वैज्ञानिकों ने माना है कि प्रकृति से ये छठी इंद्रिय हमारे पूर्वजों को और पशु-पक्षियों को प्राप्त थी। पशु-पक्षियों में भी यह ओघ संज्ञा वाला ज्ञान मालूम होता है। उसके कुछ उदाहरण भी हैं। जैसे भूकंप आने वाला है, तूफान आने वाला है, तो पशु-पक्षियों को पहले ही आभास हो जाता है। वे अपने सुरक्षित स्थान में पहले ही पहुँच जाते हैं।
कुछ आदिम जातियों के मनुष्यों में भी ये स्थितियाँ उल्लिखित हुई है कि वो कैसे विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से हो जाता है। इसी प्रकार लोक संज्ञा को भी विशेष अवबोध वाली बताया गया है। ये दो संज्ञाएँ इमोशन से इतनी जुड़ी हुई नहीं, ज्ञानात्मक चेतना से जुड़ी हुई है। इनका संबंध ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जुड़ा हो सकता है। बाकी जो आठ संज्ञाएँ हैं, उनमें भावात्मकता की प्रधानता है। आदमी को आहार संज्ञा होती है, वो सुधा वेदनीय या मोहनीय कर्म से हो सकती है। भय भी मोहनीय कर्म से होता है। कई छोटे जीवों से भय जुड़ जाता है। ऐसे ही मैथुन संज्ञा होती है। परिग्रह संज्ञा-परिग्रह कर लो, पदार्थों या व्यक्तियों के प्रति आसक्ति-लालसा, तृष्णा से संग्रह वृत्ति हो जाती है। क्रोध संज्ञा गुस्से से हो जाती है। अहंकार की संज्ञाबात-बात में अपने को बड़ा बताना। माया की संज्ञाआदमी छल-कपट कर लेता है। लोभ की भी संज्ञा परिग्रह से जुड़ी है। हमारा सामान्य जीवन जो छठे गुणस्थान तक का जीवन है, इसमें ये संज्ञाएँ योगात्मक रूप में शुभ योग के रूप में भी आ सकती है। सम्यक्त्वी के भी प्रमाद हो सकता है और मिथ्यात्वी के भी हो सकती है। इसके लिए प्रेक्षाध्यान में अभय की अनुप्रेक्षा का प्रयोग है, जप का प्रयोगणमो जिणाणं जिय भयाणं का आलंबन ले सकते हैं। अपने इष्ट का स्मरण करें। भिक्षु स्वामी का जप भी किया जा सकता है। अभय को बढ़ाने का प्रयास करें। लक्ष्यपूर्वक प्रयास किया जाए तो इन संज्ञाओं को कृश बनाने में आगे बढ़ा जा सकता है। ये हमारे चेतना के ऊर्ध्वारोहण का कार्य हो सकता है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि मनुष्य का जीवन एक प्रवाह है। जीवन अपनी गति से चलता है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो जीवन के बारे में सोचता है। जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करता है। जीवन व्यस्त नहीं मस्त होना चाहिए। भारतीय संस्कृति में जीवन उसे माना गया है, जो शांति, सुख व आनंद का अनुभव कराने वाला होता है। असमंजस्य में जीवन न जीएँ। जीवन में आवश्यकता होती है, पर आकांक्षा न हो। आनंदमय जीवन हो। जीवन में संयम की चेतना जागृत हो, संयम में विश्वास हो। जीवन में संयम की प्रधानता रहे। सच्चा सुख, शांति और आनंद संतोष में है। साधन शुद्धि से पवित्रता आएगी। मुख्य नियोजिका जी ने चारित्र विवेचना करते हुए कहा कि सर्व सावद्य योगों का त्याग करना चारित्र है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका अनुष्ठान है। सिर्फ ज्ञान की आराधना लक्ष्य तक नहीं ले जा सकती है। वीतरागता के लिए चारित्र जरूरी है। साध्वीवर्या जी ने धी संपन्नोहं स्याम की विवेचना करते हुए कहा कि मनुष्य एक बुद्धिशाली प्राणी है, फिर भी उसमें विकार आता है। पर पशु-पक्षी में विकार नहीं आते। मनुष्य अपनी बुद्धि का गलत उपयोग कर सकता है, तो अच्छा उपयोग भी कर सकता है। भंवरलाल कर्णावट परिवार द्वारा संचालित भंवरलाल चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दिया जाने वाला बोधि सम्मान का कार्यक्रम आयोजित हुआ। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि आदमी के जीवन को सुफल-सार्थक बनाने के लिए दो उपाय महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रहे हैं। मुख्य उपाय है, आदमी अपने जीवन में संयम की चेतना को पुष्ट करने का प्रयास करे। त्याग की तरफ आगे बढ़े। गृहस्थ जीवन में ये संभव नहीं है, पर जितना त्याग-संयम बढ़ा सके आदमी वो अच्छा है। उम्र के साथ संयम बढ़े। दूसरी बात है, आदमी दूसरों की सेवा क्या करता है। दूसरों की सेवा करना मनुष्य जीवन की सार्थकता है। संयम और सेवा जीवन में आ गए हैं, तो जीवन सार्थक हो सकेगा। सम्मान का विवेचन अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है। सेवा करने वाले को सम्मान की अपेक्षा न रहे। कर्णावट परिवार द्वारा सम्मान दिया जा रहा है, ये अच्छे कार्य की प्रेरणा पुष्ट होती रहे। देव कोठारी, महेंद्र भाणावत, प्रो0 धर्मचंद जैन, चतुर कोठारी को बोधि सम्मान प्रदान किया गया। सभी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।