ममत्व भाव को ढीला छोड़ देने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 16 अक्टूबर, 2021
धर्मज्ञाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि अर्हत वाङ्मय के आगम साहित्य का अंग विभाग है, उसमें दूसरा आगम सूयगड़ो है। यह एक ऐसा आगम है, जिसके अध्ययन में भगवान महावीर की स्तुति है।
श्रुत स्कंद का पहला अध्ययन पहला उद्देश्य और प्रारंभ के पहले श्लोक में शास्त्रकार ने बताया है कि सुधर्मा स्वामी ने कहाबुद्ध बनो, बोधि को प्राप्त करो और तोड़ डालो, बंधन को जानकर के तोड़ डालो। एक आदेश, निर्देश और उपदेश मानो दे दिया गया।
तीन चीजें हमारे सामने इस श्लोक के माध्यम से आ जाती हैं। पहली बात हैबोधि को प्राप्त करो। दूसरी बात आती हैतोड़ डालो। तीसरी बात आती हैबंधन को तोड़ डालो। हम इन तीनों की परिक्रमा-यात्रा करें या मनन करें। पहले बंधन की बात नहीं कही। तोड़ने की बात भी नहीं की। इस श्लोक के प्रथम में कहा गया हैसमझो, जानो, बोधि को प्राप्त करो। ज्ञान का निर्देश दे दिया है। ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान का बहुत महत्त्व है। जैन शासन में पंचाचार की बात आती है और बात आती हैआचार प्रथम धर्म है। ज्ञान भी एक प्रकार का ज्ञानाचार होता है। दूसरे संदर्भ में आचार का मतलब चारित्र भी हो जाता है। ज्ञान और आचार को अलग-अलग ले लें तो ज्ञान पहला धर्म है। दसवेंआलियं में भी यह बात आती है पहले ज्ञान फिर आचरण-दया। ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण भी कैसे होगा। आचार को जानेंगे ही नहीं, तो कितना पालन कर पाएँगे। ज्ञानी मनुष्य आचार और अनाचार का विवेक कर सकता है। ज्ञान जितना-जितना स्पष्ट-निर्मल हो जाएगा, समझ लेंगे बात को तो, फिर वो आचरण में आसानी से आ सकेगा। नवतत्त्व को जानेंगे तो बंधन को भी जानना है। बंधन को जानकर बंधन को तोड़ो। ताकि बंधन से मुक्ति मिल सके। जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा कि भगवान महावीर ने बंधन किसको कहा है? सुधर्मा स्वामी का निर्देश मिल गया कि बोधि को प्राप्त करो और तोड़ डालो। तब जम्बू स्वामी ने जिज्ञासा की कि किसको तोड़ूँ? बंधन किसको कहा है, भगवान ने? सुधर्मा स्वामी ने अपने ढंग से उत्तर दिया कि भगवान महावीर ने परिग्रह और हिंसा को बंधन कहा है। बंधन का हेतु हैममत्व भाव। इसको तोड़ने का उपाय है कि धन और परिवार में अत्राण का दर्शन करो। कोई मेरा त्राण नहीं है। दूसरी बात हैजीवन मृत्यु की ओर जा रहा है। ये अनुप्रेक्षा करो तो तोड़ने की प्रक्रिया में आगे बढ़ सकते हो। आदमी पुरुषार्थ करता है, उसका कोई प्रयोजन भी तो होना चाहिए। प्रयोजन के बिना सामान्य आदमी भी प्रवृत्ति नहीं करता। सामान्य आदमी व्यवहार के धरातल पर दु:ख की निवृत्ति के लिए और सुख की उपलब्धि के लिए प्रवृत्ति करता है। अध्यात्म के जगत में देखें तो बंधन से मुक्ति यानी मोक्ष की उपलब्धि के लिए साधक पुरुषार्थ करता है। बंधन अपने आपमें दु:ख है, मोक्ष अपने आपमें सुख है। बंध से मोक्ष पाना है, तो बंध को तोड़ना होगा। बंधन से मुक्ति का प्रयास हो, यह एक कहानी से समझाया कि कायोत्सर्ग से बंध को तोड़ा जा सकता है, मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। शरीर एक पिंजरा है, आत्मा एक तोता है। आत्मा शरीर से हमेशा के लिए मुक्त हो जाए वह बंधन से मुक्ति है। कायोत्सर्ग से शरीर को ही नहीं, ममत्व भाव को ढीला छोड़ देने का प्रयास करें। प्रथम श्लोक में जानो और बंधन को तोड़ो, ये संदेश सुधर्मा स्वामी की ओर से जम्बू को दिया गया है। पूज्यप्रवर की सन्निधि में मुनि मार्दवकुमार जी ने नौ की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि दस धर्मों में मार्दव एक धर्म है। तुम भी मार्दव संपन्न बनो। जीवन में लक्ष्य रखो कि मार्दव धर्म की साधना करो। अहंकार नहीं करना। मृदु बनो। मुमुक्षु दीप्ति को पूज्यप्रवर ने प्रेरणा संस्कृत भाषा में ही करवाई। मुख्य नियोजिका जी ने प्रति संल्लीनता के पाँच प्रकारों की विवेचना करते हुए कहा कि बाह्य इंद्रियों से व्यक्ति गहराई से अंदर नहीं उतर सकता है। उसका उपाय हैप्रति संल्लीनता। इंद्रियों के विषयों के प्रति हमारा राग-द्वेष न हो। राग-द्वेष प्रियता-अप्रियता पैदा कर सकते हैं। जैसे ही जीव राग-द्वेष से मुक्त होता है, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इंद्रियों के संयम के लिए राग से विराग की ओर प्रस्थान करना होगा। मुमुक्षु दीप्ति ने संस्कृत भाषा में अपनी अभिव्यक्ति श्रीचरणों में अर्पित की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।