चिंतन की धारा बदलने से संभव है दुःख मुक्ति : आचार्यश्री महाश्रमण
श्रद्धा, धृति, शक्ति और शांति संपन्न आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रेरणा पाथेय के माध्यम से फ़रमाया - 'आयारो' आगम में बताया गया है कि संसार में मनुष्यों के लिए दुःख और सुख दोनों होते हैं। दुःख जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु के संदर्भ में हो सकता है। यह शारीरिक और मानसिक दुःख के विभिन्न रूपों में भी प्रकट हो सकता है। हम दुःख को दो भागों में बाँट सकते हैं—'जरा' और 'शोक'। शारीरिक कष्ट को 'जरा' कहते हैं और मानसिक कष्ट को 'शोक'। प्रश्न यह है कि आदमी दुःख से मुक्त कैसे बने? और दुःख मुक्ति का मार्ग बताने वाले कौन हैं? जो कुशल हैं—जैसे गणधर, आचार्य, और साधु—वे दुःख मुक्ति का मार्ग बताते हैं। ये धर्म कथा लब्धि संपन्न होते हैं और जैसा कहते हैं वैसा करते हैं। वे जितेंद्रिय और जितपरिषही होते हैं।
'आचारंग भाष्य' में चार बातें बताई गई हैं: बन्ध है, बन्ध का कारण है, बन्ध मुक्ति है, और बन्ध मुक्ति का कारण है। बन्ध पुण्य या पाप के रूप में होता है। जब ये पुण्य-पाप उदय में आते हैं, तब भाव पुण्य-पाप बनते हैं। बन्ध के रूप में ये द्रव्य पुण्य-पाप हैं। आश्रव को बंध का कारण बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कर्मों का कर्ता आश्रव ही होता है। दुःख से मुक्ति संभव है। मोक्ष का कारण संवर और निर्जरा है। जो प्रवचन करते हैं, वे दुःख मुक्ति का उपाय भी बताते हैं। प्रवचन देना भी सेवा का एक रूप है। आदमी के मन में चिन्तन से दुःख उत्पन्न हो सकता है, लेकिन यदि चिन्तन की धारा बदल जाए, तो दुःख मुक्ति संभव हो सकती है। अभाव पर ध्यान केंद्रित करने से व्यक्ति दुःखी हो सकता है, जबकि भाव को देखने से सुखी भी हो सकता है।
सही चिन्तन का होना आवश्यक है। सन्यास का मार्ग संवर और निर्जरा का मार्ग है, जो दुःख मुक्ति का मार्ग और उपाय है। मनुष्य को नकारात्मक चिन्तन से बचना चाहिए। पाप कर्म के उदय से कष्ट आ सकते हैं, लेकिन समता से कर्म की निर्जरा होती है। किसी अन्य व्यक्ति का कोई प्रभाव नहीं होता, भले ही वह निमित्त बन जाए। यदि किसी का पुण्य प्रबल है, तो कोई उसे हरा नहीं सकता, और यदि पाप प्रबल हो गया, तो कोई उसे बचा नहीं सकता। उत्तर कर्नाटक आंचलिक सभा से अनेक ज्ञानार्थी पूज्यवर की उपासना में उपस्थित हुए। आंचलिक सभाध्यक्ष राजेन्द्र जीरावला ने अपनी अभिव्यक्ति दी। ज्ञानार्थियों ने अपनी भाव भरी प्रस्तुति दी। पूज्यवर ने आशीर्वचन देते हुए कहा कि बच्चों में ज्ञान और संस्कारों की पुष्टि होती रहे। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।