अपरिग्रही और अनासक्त नहीं होते हैं प्रवृत्ति में लिप्त : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म के हिमालय आचार्यश्री महाश्रमणजी ने 'आयारो आगम' की विवेचना करते हुए कहा कि मनुष्य जीवन जीता है और जीवन जीने के लिए प्रवृत्ति भी करनी पड़ती है। कई अन्य कार्य भी होते हैं जिनके लिए चिंता हो सकती है, जैसे रोटी-पानी, कपड़ा, मकान आदि आवश्यकताएं। सामान्य व्यक्ति कभी-कभी इस स्थिति में पड़ सकता है कि वह शांति से कैसे जीए। प्रवृत्ति के साथ कर्म का बंधन होता है। जो वीर अपरिग्रही और अनासक्त होता है, वह इन कर्म बंधनों से लिप्त नहीं होता। कर्म बंधन में कषाय का बड़ा योगदान होता है। कर्म के बंधन में कषाय और योग की भूमिका मानी गई है। प्रकृति और प्रदेश के बंध में योग की भूमिका होती है, जबकि स्थिति और अनुभाग के बंध में कषाय की भूमिका रहती है। बंधन दो प्रकार के होते हैं—साम्परायिक बंध और ऐर्यापथिक बंध। पहले से दसवें गुणस्थान तक साम्परायिक बंध होता है क्योंकि कषाय दसवें गुणस्थान तक होता है। 11वें, 12वें, और 13वें गुणस्थान में ऐर्यापथिक बंध होता है, जहां कषाय नहीं होता और न ही योग होता है।
जहां कषाय होता है, वहां साम्परायिक बंध होता है, और जहां सिर्फ योग होता है, वहां ऐर्यापथिक बंध होता है। ऐर्यापथिक बंध नाम मात्र का होता है, और यह केवल सातवेदनीय कर्म का बंध होता है। इसकी स्थिति भी केवल दो समय की होती है—बंधन और मोचन। सकषायता वाला बंध लम्बे समय तक बना रहता है। , आसक्ति तीव्र हो, और द्वेष आदि हो, तो बंध की स्थिति लंबी हो सकती है। सातवीं नरक का बंध भी 33 सागरोपम का होता है, और अनुत्तर विभाग के बंध की स्थिति भी 31 से 33 सागरोपम तक होती है। साम्परायिक बंध में, जहां पाप कर्म का बंध होता है, वहां कषाय तीव्र होता है, और जहां पुण्य कर्म का बंध होता है, वहां उत्कृष्ट कषाय की मंदता होती है। जो अपरिग्रही और अनासक्त वीर होते हैं, वे प्रवृत्ति करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं होते। जो गृहस्थ जीवन जीते हैं, उनमें भाव शुद्धि की भावना रहनी चाहिए। यदि वे प्रवृत्ति करते हुए भी निर्लिप्त रहें, तो वे पापकारी भारी कर्मों के बंधन से बचे रह सकते हैं। प्रवचन के पश्चात सूरत किशोर मंडल और कन्या मंडल ने चौबीसी के गीतों की प्रस्तुति दी। मुम्बई के विराग मधुमालती ने अपनी भावनाएं व्यक्त की। बालिका तनीषा अब्बाणी ने भी अपनी प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।