जो चट्टानों में ना उलझे, वह झरना किस काम का

जो चट्टानों में ना उलझे, वह झरना किस काम का

तारण तरण ज्योतिचरण आचार्य श्री महाश्रमण जी की पवित्र आभावलय का अवलंबन लेकर न जाने कितने साधक-साधिकाओं ने अपनी जीवन नैया को पार लगाया है, उसका मूर्त उदाहरण है - तपोमूर्ति साध्वी धैर्यप्रभाजी। जिन्होंने अपने लघु संयम काल में इस सफर को एक प्रेरक मुकाम तक पहुंचाया।
हे कीर्तिधर ! कीर्तिपुरुष, यह आपकी तेजस्वी संतता का ही पुण्य प्रताप है कि चेन्नई पावस में चेन्नई का एक खुशहाल बोहरा परिवार संसार समुद्र को छोड़ शासन समुद्र में सम्मिलित हुआ। केवल सम्मिलित ही नहीं अपितु इस परिकर का प्रत्येक सदस्य अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुरूप संघ चमन में सेवा एवं साधनारत है। 
''मुसीबत से ही निकलती है शख्सियत इंसान की साहब। 
जो चट्टानों में ना उलझे, वह झरना किस काम का।।''
चट्टान जैसी मजबूत मनोबली साध्वी धैर्यप्रभाजी का ही वज्र संकल्प संपूर्ण परिवार को अनिकेत पंथ का पथिक बना पाया।
यह धैर्यप्रभाजी का वज्र संकल्प ही था जो उन्हें स्वावलंबी बनने और अपनी निर्जरा करते रहने की प्रेरणा सदैव देता रहा। 
यह धैर्यप्रभाजी का वज्र संकल्प ही था जो उन्हें अविरल तपमय जीवन जीने को प्रेरित करता रहा। 
यह धैर्यप्रभाजी का वज्र संकल्प ही था जिससे उन्होंने महाश्रमण दीक्षा कल्याण वर्ष के सभी संकल्पों को पूर्ण कर अपने आराध्य की अर्चना तप गुलदस्ते से की। 
'Don't pull of anything until tomorrow, what you know must be done today, tomorrow just might never come.' 
इस कथन के अनुसार लगता है धैर्यप्रभाजी ने इसे अपना आधार बनाकर कदम दर कदम अपने चरणों को गतिमान करती रहीं और अपने सारे कार्यों का सिद्धार्थ पा लिया। 
6 अक्टूबर 2005 को उन्होंने मुझे और साध्वी सिद्धार्थप्रभाजी को पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश हेतु चेन्नई से विदा किया। वे हम दोनों के सम्मुख इस तरह विदा होगी, कौन जानता था? संघ में बाद में आकर, पहले उत्कृष्ट साधना कर, अपने सौम्य व्यवहार कौशल से सबके लिए एक मिसाल बनकर आत्म स्वरूप की दिशा में प्रस्थित हो गई। अंत में उसे दिव्य आत्मा, तपोमूर्ति साध्वी धैर्यप्रभाजी के लिए तहे दिल से यही मनोभाव व्यक्त करती हूं कि वह शीघ्र सिद्धश्री का वरण करें।