साँसों का इकतारा
ु साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ु
(25)
पुलकित धरा और आकाश।
प्राणों में अभिनव उच्छ्वास॥
तुम भविष्य की उजली आशा
तुम पर टिका हुआ विश्वास
कैसी नई बहारें लाए
किस दुनिया के तुम मधुमास
छाया कण-कण में उल्लास॥
मानव मानव बनकर जीए
चला रहे अणुव्रत अभियान
नई उषाएँ उतरे नभ से
करते रहते अनुसंधान
फैला जग में नया प्रकाश॥
जग अशांत है शांतिदूत अब
सुख की राह दिखाओ तुम
भूल रहे जो आपा अपना
उनको मंत्र सिखाओ तुम
कर पाएँ उत्तम आयास॥
आँखों में आलोक आंजकर
तुमने इस जग को देखा
परंपरा को पोषण देकर
खींच रहे अभिनव रेखा
कैसा अद्भुत है विन्यास॥
(26)
क्रांति का अध्याय जो तुमने लिखा है
वह समय के भाल पर अंकित रहेगा
शांति का दरिया तुम्हारे हृदय में जो
लोक जीवन की धरा पर वह बहेगा।
हाशिये पर खड़े मानव को निहारा
सहज बेचैनी बढ़ी मन में तुम्हारे
विश्व का स्वामी हुआ क्यों विवश इतना
प्रश्न युग की अरगनी पर ढेर सारे
दी दिशा तुमने नई युग चेतना को
सृष्टि का इतिहास यह खुद ही कहेगा॥
आदमी है गौण और वरेण्य वैभव
नहीं कीमत आदमी की यहाँ कोई
अर्थ को है प्राप्त सिंहासन समुन्नत
किंतु मूल्यों ने निजी पहचान खोई
भोर की किरणें लिए शिकवा खड़ी हैं
इस विषमता को कहाँ तक नर सहेगा॥
तुम अटल संकल्प हो तुम अतुल साहस
हर असंभव को बना संभव दिखाते
तुम परम पुरुषार्थ की साकार प्रतिमा
गीत सिरजन के सरस सबको सुनाते
दिग्विजय यात्रा तुम्हारी है विलक्षण
दुराचारों का किला निश्चित ढहेगा॥
(क्रमश:)