एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

मंगलाचरण
(1) नमो नमो पारगतेश्‍वराय, श्रीवर्धमानाय नमो नमो मे।
चिन्मात्रसिद्धाय नमो नमो मे, श्रीवीतरागाय नमो नमो मे॥
उपजाति
भवभ्रमण को अतीत कर चुके तीर्थंकर, प्रभु वर्धमान, शुद्ध चैतन्य स्वरूप सिद्ध एवं वीतराग प्रभु को मेरा बार-बार नमन।

(2) आचार्यदेवाय नमो नमो मे, सुधर्मणेऽप्यस्तु नमो नमो मे।
श्रीपाठकायायि नमो नमो मे, सुसाधुपूज्याय नमो नमो मे॥
उपजाति
आचार्यदेव, गणधर सुधर्मा, पूज्य उपाध्याय तथा सुसाधुओं को मेरा पुन: पुन: नमस्कार।

(3) श्री भिक्षुनाथाय नमो नमो मे, श्रीभारमल्लाय नमो नमो मे।
श्रीरायचन्द्राय नमो नमो मे, श्रीमज्जयायायि नमो नमो मे॥
इंद्रवज्रा
आचार्य भिक्षु, आचार्य भारमल, आचार्य रायचंद एवं जयाचार्य को मेरा अभिवंदन।

(4) नमो नमो मे मघवेश्‍वराय, श्रीमाणकायायि नमो नमो मे।
श्रीडालचंद्राय नमो नमो मे, श्रीकालुरामाय नमो नमो मे॥
उपजाति
आचार्य मघराज, आचार्य माणक, आचार्य डालचंद तथा आचार्य कालूराम को मैं प्रणमन करता हूँ।

(5) नायकं मम काव्यस्य, यस्याद्य जन्मवासर:।
अनुध्यायामि नित्यं तं, श्रीतुलसीं नमाम्यहम्॥
अनुष्टुप्
मेरे काव्य के मूल नायक, गुरुदेवश्री तुलसीगणी, जिनका आज जन्मदिवस है, उनका मैं नित्य स्मरण करता हूँ, नमन करता हूँ।

(6) गणाधीशपदाधीशं, दिव्यध्यानस्य धारकम्।
महाप्रज्ञं महाप्राज्ञं, संस्तुवेऽहं प्रमोदत:॥
गण और उस पद के स्वामी, दिव्य ध्यान के धारक, महाप्राज्ञ महाप्रज्ञ की मैं प्रमुदित मन से स्तुति करता हूँ।
काव्य-प्रवेश
(7) आह्वयामि महाप्रज्ञं, काव्ये सहायतां कुरु।
भवद्कृपां विनैतच्च, महद्कार्यमसंभवम्॥
मैं आचार्यश्री महाप्रज्ञ का आह्वान करता हूँ, कि वे मेरे इस काव्य में सहायता करें, क्योंकि आपके कृपा के बिना यह महद्कार्य असंभव प्रतीत होता है।

(8) प्रसह्य श्‍वानपुच्छं तु, कदाचित् सरलं भवेत्।
भवद्सर्वगुणानां च, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कदाचित् कुत्ते की पूँछ को बलपूर्वक सीधा किया जा सकता है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(9) कदाचित् खनितुं शक्या, गृहाधारशिला नभे।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कदाचित् घर की नींव आकाश में खोदी जा सकती है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(10) कदापि वानरं कर्तुं, शक्नोति किन्तु साधक:।
भवद्सर्वगुणानां च, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कभी बंदर को साधक बनाया जा सकता है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(11) निभालयितुमादर्शे, शक्योऽन्ध आत्मलक्षणम्।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कदाचित् प्रज्ञाचक्षु दर्पण में अपना रूप निहार सकता है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(12) पानीयं ज्वलितुं शक्यं, वै धगद्-धगता कदा।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कभी पानी धग-धगपूर्वक जल सकता है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(13) कृशानु: शीतलीभूत्वा, शक्योऽग्नि शमितुं कदा।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कभी स्वयं आग शीतलता धारण करके आग बुझा सकती है, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।