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संबोधि
भगवान् प्राह
३४. पर्यायापेक्षया धीमन् आत्माप्येषु न शाश्वतः।
पुद्गलापेक्षया नूनं, शरीरञ्चापि शाश्वतम्।।
भगवान् ने कहा-धीमन्! पर्याय की अपेक्षा से आत्मा भी शाश्वत नहीं है और पुद्गल की अपेक्षा से शरीर भी शाश्वत है।
इस जगत में जितने भी द्रव्य हैं, वे शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं, द्रव्यत्व की अपेक्षा से शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है। गुण और पर्याय इन दोनों का समन्वित रूप द्रव्य है। द्रव्य अपने मौलिक गुण को किसी भी अवस्था में नहीं छोड़ता। वह सतत उसके साथ रहता है। आत्मा का स्वभाव-गुण चैतन्य है, वह चैतन्य एकेन्द्रिय वाली आत्माओं में भी विद्यमान है, पंचेन्द्रिय जीवों में विद्यमान है और अतीन्द्रिय सिद्ध अवस्था में भी विद्यमान है। गीता में कहा है-वस्त्रों के जीर्ण होने पर नये वस्त्रों को जैसे धारण किया जाता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नये शरीरों का धारण करता है, किन्तु आत्मा वैसा का वैसा ही रहता है। यह शरीरों का धारण करना पर्याय है। जैसे शरीर धारण आत्मा की पर्याय है वैसे पुद्गलात्मक है। पुद्गलों का अपना गुण है-वे अवस्थाएं बदलने के साथ गुण को नहीं बदलते। एक ही जीवन में एक ही शरीर कितनी पर्याय बदल लेता है। सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो परिवर्तन का क्रम अनवरत चलता है। बौद्ध इसी पर्यायदृष्टि को प्रधान रखकर कहते हैं-सब कुछ क्षणक्षयी है। जो पदार्थ इस क्षण है वह दूसरे क्षण में नहीं है। नदी का पानी जो बह रहा है, दूसरे क्षण वह नहीं है। भगवान् महावीर ने कहा-पर्यायों का परिवर्तन प्रतिक्षण सब द्रव्यों में होता है।
आत्मा गुण की दृष्टि से शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है। वैसे शरीर भी पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से शाश्वत है और पुद्गल के पर्याय परिवर्तन की अपेक्षा से अशाश्वत है।
मेघः प्राह
३५. आत्मास्तित्वमुपेतोऽपि, कथं दृश्यो न चक्षुषा?
मेघ बोला-भगवन् ! आत्मा का अस्तित्व है फिर भी वह चक्षु के द्वारा दृश्य क्यों नहीं है?
भगवान् प्राह
जीवपुद्गलयोगेन, दृश्यं जगदिदं भवेत् ॥
भगवान् ने कहा-वत्स ! यह जगत् जीव और पुद्गल के संयोग
से दृश्य बनता है।