वित्त अर्जन में वृत्त अच्छा होना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 31 अक्टूबर, 2021
महामनीषी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि दो शब्द हैंवित्त और वृत्त। दोनों शब्दों में काफी साम्य है। ई कार और रिकार का अंतर है। वित्त यानी पैसाधन-अर्थ। वृत्त यानी चारित्र आचरण। इन दोनों में ज्यादा दूरी न हो।
जो अपरिग्रही साधु है, जिन्होंने पैसे को त्याग दिया। हम साधुओं में पाँच नियमों का पालन करणीय होता है। ये पाँच महाव्रत कहलाते हैं। इनमें पाँचवाँ महाव्रत हैसर्व परिग्रह विरमण। साधु परिग्रह का त्यागी हो यह विधान है। साधु के स्वामित्व में किसी भी तरह का परिग्रह न हो। जो गृहस्थ जीवन जीने वाले हैं, उनको परिग्रह भी रखना होता है। अर्थ-पैसा भी कमाना, प्राप्त करना होता है। वित्त गृहस्थ को चाहिए जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। पैसे से गृहस्थ के काम होते हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने बताया था कि दो शब्द हैंअर्थ और अर्थाभास। अर्थ यानी न्याय-नीति से अर्जित किया गया पैसा। अन्याय अनीति से जो पैसा प्राप्त किया जाता है, वह अर्थाभास है। गृहस्थ जीवन में अर्थ रखना कोई निंदनीय कार्य नहीं है, पर पैसे के साथ आर्थिक शुचिता या अशुद्धि न आए।
पैसे की तीन स्थितियाँ हैंअर्जन, संरक्षण और उपभोग। अर्जन में शुचिता के लिए ईमानदारी आवश्यक है। अर्जन में झूठ और चोरी से बचा जाता है, तो अर्थ में शुद्धता है। संरक्षण के साथ अनासक्ति जोड़ दें। अर्थ में ज्यादा मोह न हो। अनासक्ति है, तो तनाव कम रहेगा, चेतना-आत्मा शुद्ध रह सकेगी। उपभोग में संयम हो। श्रावक के बारह व्रतों में पाँचवाँ व्रत हैइच्छा परिमाण और सातवाँ हैभोगोपभोग परिमाण। इच्छाओं की सीमा हो। संग्रह ज्यादा मत करो और मोह भी ज्यादा मत रखो। व्यक्तिगत जीवन में उपभोग का संयम हो। सादगीपूर्ण जीवन रहे। तीन चीजें ईमानदारी, अनासक्ति और संयम अर्थ के साथ जुड़ी रहे तो अर्थ अर्थ रह सकेगा, अर्थाभास नहीं हो सकेगा। व्यापार, व्यवसाय, उद्योग जनता की सेवा के लिए है। सेवा दूँ और पैसा लूँ ताकि मेरे परिवार का भी भरण-पोषण अच्छी तरह हो सके। व्यापारी, उद्योगपति यह सोचे कि कहीं ऐसा न हो जाए कि सेवा से ऊपर पैसा चला जाए। वित्त के साथ वृत्त-चरित्र अच्छा रहे। व्यापारी जनता के विश्वास पात्र बने रहें। सेवा में ईमानदारी रहे तो सेवा निर्मल रह सकती है। पूज्यप्रवर ने दीपावली पर तेले करने की प्रेरणा दी। मेवाड़ चेम्बर ऑफ कॉमर्स का सम्मेलन हो रहा है। राजस्थान हाईकोर्ट के न्यायाधीश मनोज कुमार गर्ग भी पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में उपस्थित हुए। पूज्यप्रवर ने जिज्ञासाओं का समाधान दिया। व्यवस्था समिति के अध्यक्ष प्रकाश सुतरिया ने आगंतुक अतिथियों का स्वागत-अभिनंदन किया। न्यायाधीश मनोज कुमार जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर ने प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि लोकतंत्र हो या राजतंत्र न्यायपालिका का बड़ा महत्त्व है। न्यायपालिका अपराधों को रोकने में सिद्ध हो सकती है। राजा का कर्तव्य हैसज्जनों की रक्षा करना, दुर्जनों पर अनुशासन व प्रजा का भरण-पोषण करना। न्यायाधीश न्याय के आसन पर बैठने वाले विशिष्ट व्यक्ति होते हैं। प्रलोभन-भय न्याय में बाधक बनते हैं। ये दोनों न्याय पर हावी न हो। निष्पक्षता का प्रयास हो। मेवाड़ चेम्बर ऑफ कॉमर्स के पूर्व चेयरमैन श्याम बोरा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। चेम्बर ऑफ कॉमर्स के मंत्री आर0के0 जैन ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। अभिनव चोरड़िया ने गीत की प्रस्तुति दी। व्यवस्था समिति द्वारा आगंतुक मेहमानों का सम्मान किया। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि चक्षुष्मान कौन होता है और कितने के प्रकार के होते हैं। तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैंएक चक्षु, दो चक्षु और तीन चक्षु वाले। छद्मस्थ मनुष्य एक चक्षु वाला होता है। देवों के दो चक्षु माने गए हैं। जन्म चक्षु और अवधिज्ञान का चक्षु। तथा रूप श्रमण महान जो उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक होते हैं, वे त्रिचक्षु होते हैं।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि तेरापंथ में विनय और वात्सल्य की जो परंपरा है, इसके कारण इसका हर सदस्य प्रसन्नता की अनुभूति करता है। शांति की अनुभूति करता है। विनय से व्यक्ति अपना विकास करता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि ईमानदारी की संपत्ति प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरूरी है।