सत्य की खोज के लिए अनाग्रह की चेतना अपेक्षित : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 26 अक्टूबर, 2021
युगप्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि ज्ञान जगत में अनेक विचारधाराएँ, सिद्धांत धाराएँ हैं। दार्शनिक जगत में अनेक दर्शन हैं, फिलोसोफिज़ हैं। उनके सिद्धांतों में भी अंतर है। नास्तिक दर्शन भी है। आस्तिक दर्शन भी है। सूयगड़ो आगम में अन्य विचारों-मान्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। एक सिद्धांत जो अन्य दार्शनिकों का है कि कुछ दार्शनिक भूतवादी है। उनके मत में ऐसा निरूपित किया गया है कि इस जगत में पाँच महाभूत होते हैं। भूत यानी तत्त्व। भूत से भौतिक शब्द बना है। अध्यात्म से विपरीत चीजें भौतिक होती हैं। पाँच महाभूत में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश है। जैन दर्शन में छ: काय के जीव हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय, ये चार काय चार महाभूत से जुड़े हैं। एक आकाश है, जो छ: द्रव्यों में आकाशास्तिकाय भी आता है। ये पाँच तत्त्व हैं, इनके संयोग से एक आत्मा उत्पन्न होती है। इन पाँच महाभूतों का विनाश होने पर उस आत्मा का भी विनाश हो जाता है। ये स्वतंत्र आत्मा जैसी चीज को नहीं मानते हैं। ये शरीर भी इन पाँच भौतिक तत्त्वों का संयोग है। शरीर में जो कठोर भाग है, वह पृथ्वी भूत है। जैसे हडि्डयाँ हैं। शरीर में जो द्रव भाग है, वह पानी भूत है। शरीर में जो उष्मा है, वह अग्निभूत है। शरीर में जो चलस्वभाव उच्छ्वास-नि:श्वास होता है, वह वायु तत्त्व है। शरीर में जो पोला भाग है, वह आकाश भाग होता है। इन पाँच महाभूतों से एक तत्त्व पैदा होता है, जिसे आत्मा-चैतन्य कह सकते हैं। भूतवादियों के अनुसार चेतन हो या अचेतन ये सारे द्रव्य भौतिक ही होते हैं। इस विचारधारा से पाँच भूत जो ये शरीर में संयुक्त हुए हैं, उनसे चैतन्य पैदा हुआ है। इन पाँच तत्त्वों में से एक भी भूत की कमी हो जाए या दो से अधिक की कमी हो जाए तो प्राणी को मृत घोषित कर दिया जाता है। ये सारा इन पाँच महाभूतों का खेल है, ऐसा इनका चिंतन है। एक तत्त्व की जो कमी हो जाने से जीव मृत हो जाता है, तो पाँचों तत्त्व पाँचों तत्त्वों में मिल जाते हैं। इस तरह सारा विश्वास हो जाता है। ये भूतवादी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं। षड् दर्शन में चार्वाक दर्शन की भी बात आती है। चार्वाक दर्शन में चार भूत बताए गए हैंपृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु। वहाँ आकाश नहीं बताया गया है, क्योंकि वो प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानते हैं। कारण आकाश अमूर्त है। बहुत काव्यायन पाँच भूतों को स्वीकार करने वाले थे। वे आत्मा को नहीं मानते थे। भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और भूतों के विनाश से चैतन्य का विनाश हो जाता है, ये अनात्मवादियों का सिद्धांत है। शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है। आत्मा भिन्न नहीं है, तो न परलोक में जाने की बात है, न पुण्य-पाप का फल बाद में भोगने की बात है, न पुनर्जन्म की बात है। इसलिए वे लोग धर्माचरण को भी महत्त्व नहीं देते।
जिस बात पर संदेह है, उस पर ध्यान मत दो, जो सामने है, उस पर ध्यान दो। जैसे एक सिक्का सोने का है या पीतल का यह संदेहात्मक है। दूसरा सिक्का शुद्ध चाँदी का है, तो ये कहते हैं, कि जो शुद्ध है, वो ही लो। ये लोग परलोक को संदेहात्मक सिक्के की तरह मानते हैं। वर्तमान को देखो, भविष्य की चिंता मत करो। ऐसी ये बातें नास्तिक संदर्भ में हैं। एक विचारधारा है, अलग-अलग मान्यताएँ को सकती हैं। जैन धर्म-जैन दर्शन की बातें तो आगमों में है ही पर दूसरे दर्शन की बातें भी आगम में बताई गई हैं। इससे दूसरे के सिद्धांत की भी जानकारी मिल जाती है। दूसरे के सिद्धांत को जान लेने के बाद इसमें हमारा क्या निष्कर्ष है, वो भी सामने आ जाए तो और ज्यादा स्पष्टता हो सकती है। मत की भिन्नता हो सकती है, पर खोज एक ऐसा तत्त्व है, जो कुछ करते-करते आज यहाँ पहुँचे हैं, आगे पता नहीं और क्या मिल जाएगा। अध्यात्म जगत में भी एक यथार्थ की प्राप्ति का क्रम बनता है। यथार्थ की प्राप्ति एक इंद्रियों के द्वारा करने का प्रयास हो, उसका भी अपना महत्त्व है। अतीन्द्रिय ज्ञान तो है, नहीं। हमारे पास ज्ञान की साधना या तो इंद्रियाँ हैं या मन है। हमारा ज्ञान सीमित है। आदमी अनाग्रही हो। आग्रही न हो। दुराग्रह नहीं होना चाहिए और कोई नई बात मिले, उस पर भी ध्यान दें। आग्रह से यथार्थ की प्राप्ति में बाधा आ सकती है। दुराग्रह करेंगे तो सच्चाई का देवता हमें दर्शन क्यों देगा। मैंने मान लिया वह सत्य है या केवली ने जाना वो सत्य है। यथार्थ का हमें साक्षात्कार करना है। अवांछनीय दुराग्रह नहीं करना। खोज करनी है, तो अनाग्रह में रहो। जो सच्चाईयाँ मिलें, उन्हें देखने, जानने, समझने का प्रयास करो। सामने वाले की बात भी सुनो। दिमाग के द्वार खुले रखो तो सत्य का देवता भीतर प्रवेश कर सकेगा। अनाग्रह की चेतना रखनी चाहिए, सत्य की खोज की दृष्टि से यह अपेक्षित लगता है। समणी कमलप्रज्ञा जी, समणी करुणाप्रज्ञा जी, समणी सुमनप्रज्ञा जी बड़े अंतराल के बाद आज श्रीचरणों में उपस्थित हुई। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि कठिनाइयाँ आ सकती हैं, समता का भाव रहे, हमारी सूझ-बूझ भी काम करती रहे। तीनों समणियाँ खूब अच्छा काम करें। साधना, सेवा का विकास हो। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। मुनि रत्नेश जी ने पूज्यप्रवर से अठाई के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। इनकी संसारपक्षीय माँ ममता प्रकाश बुरड़ ने भी अठाई की तपस्या के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। पूज्यप्रवर की सन्निधि में टीपीएफ द्वारा इंजीनियर्स सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। परम पावन ने मंगल पाथेय प्रदान करवाया। मुख्य नियोजिका जी ने शल्यों की विवेचना करते हुए कहा कि निदान शल्य में जीव अनेक प्रकार के निदान कर सकता है। शल्य से जीव चारों गति में भ्रमण करता रहता है। समणी कमलप्रज्ञा जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।