त्याग की मूल कसौटी है भीतर से त्याग करना : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 24 अक्टूबर, 2021
अनुकंपा के सागर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि सुयगड़ो आगम में कहा गया है कि हमारी दुनिया में साधु भी होते हैं और असाधु भी होते हैं। दुनिया के लिए मानो एक अच्छी बात है कि हर समय दुनिया में साधु रहते हैं। दुनिया में कुछ व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं, त्याग तो किया है, पर वो सम्यक् रूप में आत्मा में त्याग नहीं आया।
ऐसे व्यक्ति बाह्य रूप में तो त्यागी हुए पर काम भोगों में आसक्त रहने वाले हो सकते हैं। पदार्थों का ऊपर से त्याग करना भी अच्छी बात हो सकती है। पर भीतर से छूट जाए तब पूर्ण बात हो सकती है। ऊपर से छोड़ दिया पर भीतर में आसक्ति है, तो बंधन हो जाता है। भीतर से त्याग है, तो वह त्यागी हो गया। बाहर से कैसे नहीं होता? जैसे एक आदमी गृहस्थ के कपड़े पहने हुए हैं और उसी वेश में साधुपन पचक्खा दिया, ऊपर से तो नहीं पर भीतर से त्याग हो गया। तो उसमें साधुत्व तो आ गया।
मैंने बीदासर में 2014 में एक साथ 43 व्यक्तियों को मुनि दीक्षा प्रदान की थी। उनमें प्राय: तो साधु वेशधारण किए हुए थे, पर कुछ गृहस्थ वेश में या समणी वेश में थी। उस समय तीन प्रकार की वेशभूषा में व्यक्ति थे। तो कुछ का बाह्य रूप से तो त्याग नहीं था, पर भीतर से त्याग हो गया था। ऊपर का त्याग न भी हो, कल्याण तो हो सकता है। मरुदेवा माता को गृहस्थ वेश में साध्वी भाव ही नहीं सिद्ध भाव से प्राप्त हो गई। भीतर से त्याग हो जाए तो कल्याण हो सकता है। बाहर से त्याग हो, पर भीतर से त्याग नहीं तो कल्याण नहीं हो सकता। त्याग की मूल कसौटी है कि भीतर से छूटे। व्यवहार में बाहर से छोड़ना भी उचित हो सकता है।
भीतर में त्याग नहीं हुआ आसक्ति वो की वो है, ऐसे साधु वेश वाले का भी पूर्ण कल्याण नहीं होता है। भीतर से त्याग नहीं है, तो वो कभी बाहर का वेश छोड़ने को भी तैयार हो सकता है। त्याग, वैराग्य भीतर से हो, आसक्ति छूट जाए वो बड़ा त्याग हो सकता है। यह एक प्रसंग से समझाया कि गुरु रहते हैं, तो शिष्य पर अंकुश रह सकता है। जो खाली होता हे, उसमें राम-राम होता है, ऐसा कहता है। खाली है, तो राम-राम है। मैंने संन्यास लिया, क्या मैं खाली हुआ। मेरी चेतना, मेरा मन खाली हुआ। मेरे में राग-द्वेष, माया, लोभ नहीं है। ये सब हें, तो खालीपन कहाँ? मैंने खाली होने की साधना कहाँ की? खाली नहीं तो राम कैसे मिलेंगे, आत्मा कैसे दिखेगी। जो मन रूपी जल राग-द्वेष की तरंगों से तरंगित होता है, उसमें परमात्मा के साक्षात्कार की बात नहीं। जो अलोल है, राग-द्वेष की तरंगें नहीं उठती ऐसा भाव है, मन है, वह व्यक्ति आत्मा का दर्शन कर सकता है। तालाब के भीतर के भाग को देखने के लिए आवश्यक है कि तालाब का पानी स्वच्छ हो स्थिर हो। उसी प्रकार साधना में खाली मन से लगा और एक समय आया कि आत्मदर्शन हो गया। दर्पण पर चेहरा देखने के लिए दर्पण स्थिर हो, साफ हो और उस पर आवरण न हो और देखने वाला चक्षुष्मान भी हो। यह त्याग भीतर में आ जाए तो कल्याण की स्थिति निष्पन्न हो सकती है। हिंसा और परिग्रह की ग्रंथियाँ जो आत्मा को बाँधने वाली है। इन ग्रंथियों का त्याग बाहर और भीतर से करना आवश्यक है। साधु सफेद कपड़े पहनता है, यह भी साधना में सहयोगी तत्त्व है। पहचान भी है कि ये साधु है। सफेद कपड़े सादगी का प्रतीक है। तेरहवें गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है। हम लेश्या से अलेश्य बन जाएँ। हम शुक्लाम्बर है, भगवान महावीर की परंपरा से हैं। कपड़ों में शुक्लता है, तो भावों में भी शुक्ल लेश्या आ जाए। कई श्रमण ऊपर से पदार्थों का त्याग कर देते हैं, पर वे नहीं जानने वाले हैं, तो काम-भोगों में आसक्त भी रहते हैं। भोगों में आसक्त है, तो कल्याण में बड़ी बाधा हो सकती है। हम अनासक्ति की साधना करें, यह काम्य है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि हमारा लक्ष्य है, वीतरागता को प्राप्त करना। वीतरागता प्राप्त करने के अनेक लक्षण हैं। सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा वीतरागता उपलब्ध हो सकती है। प्रायश्चित भी एक माध्यम बनता है वीतरागता का। प्रायश्चित से आत्मा उज्ज्वल बनती है। साध्वीवर्या जी ने कहा कि हमें अपनी आत्मा को लोटे की तरह बार-बार माँजते रहना चाहिए, तभी आत्मा उज्ज्वल बनेगी। फिर वह गंदी और विकारग्रस्त नहीं होगी। आत्मा की चमक-उज्ज्वलता को बनाए रखना, साधना का एक उद्देश्य होता है। आत्मा के मलीन होने के भी अनेक ोत हैं। हम शुक्ल लेश्या की ओर आगे बढ़ें। अमेरिका-दुबई से समागत समणी जिनप्रज्ञा जी व समणी शांतिप्रज्ञा जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। हिरेन चोरड़िया ने गीत का संगान किया। टीपीएफ द्वारा मेधावी छात्रों का सम्मान किया गया। पूज्यप्रवर ने सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने कहा कि सम्यक्त्व का एक रूप हैअनुकंपा।