आत्मा के आसपास
ु आचार्य तुलसी ु
प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा
प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा
लेनी पड़ती है यहाँ, उपसंपदा उदार।
सहज समर्पित भाव से, बना हृदय निर्भार॥
मार्ग और सम्यक्त्ववर, संयममय आचार।
यह उत्तम उपसंपदा, शुभ भविष्य संस्कार॥
पदन्यास अध्यात्म में, करता हूँ अनिवार्य।
प्रथम मार्ग उपसंपदा, देते गुरुवर आर्य॥
अंतर् जागरणा-जगत में मेरा संचार।
यह द्वितीय उपसंपदा, करूँ सहज स्वीकार॥
भीतर में रमता रहूँ, जागरूकता साथ।
यह तृतीय उपसंपदा, आगम में आख्यात॥
प्रश्न : ध्यान के शिखरों में साधक सामान्य रूप से यों ही प्रविष्ट हो जाता है या उसे कोई विशेष संकल्प स्वीकार करना पड़ता है?
उत्तर : विशिष्ट साधना के लिए साधक का उपसंपन्न होना जरूरी है, दीक्षित होना जरूरी है। उपसंपन्न हुए बिना साधक अपने निर्देशक के आदेश का स्वीकार नहीं कर सकता। प्रत्येक ध्यान-पद्धति के अपने-अपने आदेश होते हैं। प्रेक्षाध्यान के तीन आदेश हैंमार्ग, सम्यक्त्व और संयम। साधक इन आदेशों को इस भाषा में स्वीकार करता
मग्गं उवसंपज्जामि,
सम्मत्तं उवसंपज्जामि,
संजमं उपसंपज्जामि।
पहला आदेश लक्ष्य की खोज से संबंधित है। लक्ष्य की खोज बिना कोई भी व्यक्ति नियामकता के साथ आगे नहीं बढ़ सकता। लक्ष्य नियामक होता है। जब तक साधक को अपने लक्ष्य का बोध ही नहीं होगा, वह कहाँ जाएगा? एक व्यक्ति टिकट लेने गया। टिकट बाबू ने पूछा‘कहाँ जाना है आपको? किस गाँव की टिकट दूँ?’ वह व्यक्ति बोला‘मुझे अपनी ससुराल जाना है।’ ‘ससुराल किस गाँव में है?’ यह पूछे जाने पर वह बोला‘गाँव का नाम नहीं जानता। मुझे तो ऐसे ही टिकट दे दो।’ गाँव का निर्धारण किए बिना टिकट नहीं मिल सकता। इसी प्रकार लक्ष्य का निर्धारण हुए बिना प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। मार्ग शब्द की निष्पत्ति मृगङ्ण् धातु से होती है। इसका अर्थ हैअन्वेक्षण करना। मार्ग एक प्रकार से लक्ष्य की खोज है अथवा लक्ष्य तक पहुँचने का साधन है। लक्ष्य का निर्णय होने के बाद मार्ग की उपलब्धि बहुत आवश्यक है। मार्ग बहुत होते हैं। वे सब भिन्न-भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचते हैं। प्रत्येक मार्ग किसी मंजिल तक पहुँचकर समाप्त हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि मार्ग प्रशस्त कौन-सा है? मेरे अभिमत से कोई भी मार्ग एकांतत: सही नहीं होता और एकांतत: गलत नहीं होता। गलत और सही का निर्धारण उसके साथ जुड़ी हुई अपेक्षा पर निर्भर करता है। एक व्यक्ति को कलकत्ता जाना है और वह बंबई जाने वाली ट्रेन पकड़ता है, उसके लिए वह मार्ग गलत है। किंतु जिसे बंबई पहुँचना है, उसके लिए वह मार्ग सही है। एक व्यक्ति को बीमारी तो है बदहजमी की और दवा लेता है ज्वर की, यह गलत मार्ग है। यद्यपि बदहजमी और ज्वर दोनों बीमारियों की दवा अपने-अपने क्षेत्र में सही हैं, किंतु इनका गलत उपयोग होने से ये गलत हो जाती हैं। जीवन के सामान्य व्यवहार में सही और गलत मार्ग का सम्यक् अवबोध बहुत जरूरी होता है। जीवन के सामान्य व्यवहार में सही और गलत मार्ग का सम्यक् अवबोध बहुत जरूरी होता है, वैसी स्थिति में जीवन के आंतरिक पक्ष में लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सही मार्ग की खोज कितनी आवश्यक है, यह तथ्य किसी से अज्ञात नहीं है। प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में साधक का लक्ष्य होता हैचित्त की निर्मलता। प्रेक्षा-साधक केवल एकाग्रता के लिए ध्यान नहीं करता। क्योंकि एकाग्रता एक शिकारी में भी हो सकती है, कामार्थी में भी हो सकती है और चोर में भी हो सकती है। एकाग्रता के अभाव में इन कार्यों में भी सफलता नहीं मिलती। कार्य की सफलता के साथ एकाग्रता का संबंध अनिवार्य है। पर एक आत्म-साधक व्यक्ति कोरी एकाग्रता के सहारे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। चित्त की निर्मलता या प्रसन्नता के साथ जो एकाग्रता आती है, वही साधक को उसकी मंजिल तक पहुँचाती है। मार्ग के प्रति साधक का जो सही दृष्टिकोण है, वही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व ध्यान की उपसंपदा का दूसरा बिंदु है।