व्यक्ति को अहिंसा, संयम और तप के पथ पर गतिमान रहना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 29 अक्टूबर, 2021
प्रात: स्मरणीय आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: भिक्षु विहार से विहार कर महाश्रमण सभागार पधारे। मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि मैं मार्ग में आ रहा था तो साध्वीप्रमुखाश्री जी के शब्द मेरे कर्ण में पड़े। साध्वीप्रमुखाजी मुझे कोट करके अहिंसा, संयम तप की बात बता रही थीं, तो मैं उसी बात को कुछ व्याख्यात कर रहा हूँ।
अहिंसा एक ऐसा तत्त्व है, जो बड़ा शांति देने वाला है। सुख देने वाला है। दु:ख हिंसा को प्रसूत होते हैं। सुख है, वो अहिंसा से पैदा होते हैं। अहिंसा-समता है, तो सुख पैदा हो जाता है। अणुव्रत में भी अहिंसा की बात है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने अहिंसा यात्रा की थी उसमें भी अहिंसक चेतना का जागरण, नैतिक मूल्योें का विकास, ये बातें थी। जैन-अजैन, आस्तिक-नास्तिक, नारकीय जीव, देव, मनुष्य या तिर्यंच थे, जो भी अहिंसा के पथ पर चलेगा, वो सुख को प्राप्त हो सकेगा। अहिंसा सबके लिए कल्याणकारी है। अहिंसा भगवती होती है। अहिंसा को जीवन दाता कहा गया है। समभाव रूपी अमृत का सींचन अहिंसा से प्राप्त हो सकता है। अहिंसा के पथ पर हमें चलने का प्रयास करना चाहिए। दूसरी बात हैसंयम। जीवन में जितना संयम हो। वाणी का, सोचने का, शरीर से कार्य का संयम हो। अशुभ से निवृत्ति हो। ऐसा संयम हो जाए तो अच्छी संयम की साधना हो सकती है। ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों का भी संयम हो। तीसरी बात हैतप। जितना तप हो सके। आदमी उपवास, पोरसी, नवरात्रि आदि तप करे। स्वाध्याय भी आभ्यंतर तप है। तप एक तेज है। तेजोलेश्या की प्राप्ति भी विधिवत तपस्या की साधना से हो सकती है। किसी को मारने के लिए अपनी तेजस्विता या शक्ति का प्रयोग न हो। किसी के कल्याण में अपने तेज का प्रयोग करना बढ़िया बात है। हम अहिंसा, संयम और तप के पथ पर चलें। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि मनुष्य चिंतनशील प्राणी है। वह जानता है, सोचता है, समझता है कि यह संसार अध्रुव है, अशाश्वत है, अनित्य है। और दु:ख बहुत है। जन्म, बचपन, यौवन और बुढ़ापा दु:खमय है। ऐसे संसार में जीता हुआ व्यक्ति ऐसा कौन सा कर्म करे, किस रास्ते पर चले, जिससे अगले जन्म में उसका दुर्गति से बचाव हो सके। भगवान महावीर ने अनेक उपाय बताए हैं, जिससे आदमी अच्छा जीवन जी सकता है। जन्म व्यक्ति का कल होता है, यह उसके हाथ की बात नहीं है, पर जीवन कैसा जीता है, यह उसके हाथ की बात हो सकती है। जीवन के बारे में भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न मंतव्य हैं। एक मत हैपाँचभूतों का समवाय हैयह जीवन। कुछ शरीर श्वास, इंद्रिय, मन, प्राण, भाव अच्छे हो तो चेतना को निरावरण की बात सोची जा सकती है। मनुष्य का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। कारण वह लक्ष्य का निर्धारण कर शांतिमय जीवन जीया जा सकता है। अपनी परिधि में रहकर लक्ष्य को साधने का प्रयास करें। अति कल्पना से बचें। राजपथ न बन सके तो पगडंडी बनकर चले। दूसरों का बुरा न करें। विधायक भाव में जीने वाला आनंद में जीता है। आनंद अपने अंदर ही है। आदमी की जीवनशैली अच्छी हो। इस जीवन का मूल्यांकन करे। यह एक प्रसंग से समझाया। यह हर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह जीवन को किस रूप में देखता है, उसकी कितनी कीमत आँकता है। जीवनशैली अलग-अलग हो सकती है। व्यक्ति सोचेमैं कौन हूँ, मैं अपने बारे में दूसरों की धारणा देखता रहूँगा या अपनी धारणा से चिंतन से अपना जीवन जीना है। जैन लोगों का दायित्व है कि वे अपने बारे में सोचें। एक जैन श्रावक की जीवनशैली कैसी होनी चाहिए? गणाधिपति गुरुदेव तुलसी ने एक जैन जीवनशैली बनाई थी। भगवान महावीर ने जैन श्रावक के बारह व्रत बताए हैं। जैन जीवनशैली के नौ आयाम हैं। अहिंसा, संयम और तप एक धार्मिक त्रिपदी है। इसको समझकर जीवन में उतारने का प्रयास करें। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि आदमी के जीवन में धर्म के प्रति अनुरक्ति रहे। प्रायश्चित देने वाले व्यक्ति के मन में धर्म के प्रति आस्था होती है। धर्म के कारण ही हमारी सुरक्षा है। धर्म करने का उद्देश्य है कि हमारी कर्म निर्जरा हो रही है, आत्मा का शोधन हो रहा है। विनम्रता एक ऐसा शस्त्र है, जिसके द्वारा व्यक्ति को मारा नहीं जाता, व्यक्ति के मन को उस शस्त्र से पिघाल दिया जाता है। विनय से व्यक्ति अपने कर्म को काटकर हल्का बन सकता है। साध्वी कांतयशा जी ने सुमधुर गीतिका का संगान किया। साध्वी मृदुलाकुमारी जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। साध्वी विमलप्रज्ञा जी ने सुमधुर गीत की प्रस्तुति दी।