अहिंसा की ज्योति से हिंसा के अंधकार को दूर करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 1 नवंबर, 2021
तेरापंथ के राम आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि सूयगड़ो आगम में अहिंसा की दृष्टि से यहाँ दो बातें सामने आती हैं। पहली बात है कि कोई भी जीव दु:ख नहीं चाहता, इसलिए सब जीव अहिंस्य हैं। मारने योग्य नहीं हैं।
दूसरा प्रश्न पैदा होता है कि दु:ख पैदा कौन करता है? दु:ख जीव स्वयं अपने प्रमाद के कारण उत्पन्न कर लेता है। दु:ख का निर्जरण-भेदन कैसे हो? अप्रमाद में रहो, फिर दु:ख समाप्त हो सकेगा। दु:ख किसी प्राणी को प्रिय नहीं होता है। कहा गया है कि विपत्तियाँ जीवन में आएँ। विपत्ति आने से प्रभो आपकी याद आ जाती है। आपके जितने दर्शन होंगे, हम मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ेंगे। शास्त्र में कहा गया है कि ज्ञानी होने का एक सार यही है कि किसी की हिंसा न करना। अहिंसा के पथ पर चलने का प्रयास करो, समता को देखो कि मुझे दु:ख अप्रिय है, तो इनको भी दु:ख अप्रिय है। मुझे सुख प्रिय है, तो इनको भी सुख प्रिय है। मैं मरना नहीं चाहता तो ये भी मरना नहीं चाहते। मैं जीना चाहता हूँ तो ये भी जीना चाहते हैं। धार्मिक-जगत का अत्यंत प्रसिद्ध शब्द हैअहिंसा। अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। हिंसा और अहिंसा हमारी आत्मा में है। यह निश्चय की बात है। जो अप्रमत्त होता है, वह अहिंसक है। जो प्रमत्त है, वह हिंसक होता है। वीतराग, अप्रमत्त चेतना वाले से चलते हुए कोई हिंसा भी हो जाए तो वह भाव हिंसा नहीं है, उसे पाप नहीं लगेगा। कारण अहिंसा तो भीतर है, वो तो राग-द्वेष मुक्त है। उसने प्रयास करके नहीं मारा है। अगर उस समय वीतराग शुभ योग में है, तो उसके पुण्य कर्म का बंध होगा। शिकारी ने शिकार करने के लिए बाण चलाया पर निशाना नहीं सधा, जीव नहीं मरा तो भी उस शिकारी के तो पाप का बंध हो गया, कारण उसके मन में हिंसा का भाव है। हिंसा भी आत्मा में ही है। जीव न मरने पर भी पाप लग जाना और मर जाने पर भी पाप लग जाना यह सारी बात हिंसा-अहिंसा की अपने भीतर ही है।
द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। आचार्य भिक्षु ने कहा है कि जीव अपने आयुष्य बल से जीते हैं, उसमें हमारी दया-अहिंसा की बात नहीं है। आयुष्य की संपूर्ति से जीव मरते भी हैं, तो उसका पाप हमें नहीं। जो मारता है, वो पाप का भागीदार बनता है। नहीं मारने का जो संकल्प है, वो दया है। वो गुणों की खान है। आदमी जितना हिंसा का परित्याग करे, अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ सकता है। मांसाहार हिंसा है, यह एक प्रसंग से समझाया कि कथनी-करनी में अंतर न हो। आदमी को एक पाप छिपाने के लिए दूसरा पाप करना पड़ जाता है। दुनिया में हिंसा है, तो अहिंसा भी है। जहाँ हिंसा है, वहाँ अहिंसा का दीप जलाओ। टिमटिमाते बाहर के दीये भी अच्छे लगते हैं, अहिंसा का दीया भी जलता रहे। अहिंसा की अखंड ज्योति जले। भारतीय संस्कृति में यदा-कदा ऐसे त्योहार भी आते रहते हैं। पर्व से आमोद-प्रमोद के साथ प्रेरणा का भी प्रसंग बन सकता है। शास्त्रकार ने कहा है कि ज्ञानी के ज्ञान का सार है कि वह अहिंसा की आराधना करने का प्रयास करे। हिंसा से विरत रहने का प्रयास करे। यह अहिंसा की ज्योति हमारे भीतर में रहे। यह ज्योति हिंसा के अंधकार को दूर करने वाली सिद्ध हो सकती है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि गुरु का नाम लेकर कार्य करने से असंभव कार्य भी संभव बन जाता है। जो विनीत शिष्य होता है, वह गुरु से ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह सही ज्ञान होता है। अविनीत शिष्य अगर ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है तो भी वह ज्ञान का सही प्रयोग नहीं करता है। साध्वी जागृतयशा जी ने गीत की प्रस्तुति दी। अमिता बाबेल, उमराव सिंह संचेती, प्रकाश सुतरिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। चतुर्मास का जो स्थल है, वो प्राय:-प्राय: उमराव सिंह-आदित्य संचेती का है। व्यवस्था समिति द्वारा उनका सम्मान किया गया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।