उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य वज्रस्वामी
(क्रमश:)
बालक मुनि को मिल गया। यथासमय दीक्षा दी गई। आचार्य सिंहगिरि के पास अध्ययन करने के बाद आचार्य भद्रगुप्त के पास दशपूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया। आचार्य पद प्राप्त किया। ये दशपूर्वधर अंतिम आचार्य थे। आकाशगामिनी विद्या भी इन्हें प्राप्त थी।
पाटलिपुत्र के श्रीसंपन्न श्रेष्ठी धन की कन्या रुक्मिणी वज्र पर मुग्ध हो गई। उसने प्रतिज्ञा कर ली कि मैं विवाह करूँगी तो आचार्य वज्र से ही करूँगी। आचार्य ने अपनी सुधाभरी वाणी से वैराग्य जगाकर उसको साध्वी बना दिया।
अनशनपूर्वक इनका स्वर्गवास वी0नि0 584वि0सं0 114में हुआ। आठ वर्ष तक घर में रहे। अस्सी वर्ष का संयम-पर्याय था। छत्तीस वर्ष तक युगप्रधान पद को अलंकृत किया। अट्ठासी वर्ष की अवस्था में स्वर्ग गए। उनके साथ ही दशपूर्वों का ज्ञान तथा चतुर्थ अर्धनाराच संहनन विलुप्त हो गया। वज्रस्वामी के जीवन में कई असाधारण क्षमताएँ थीं। आचारांग के महापरिज्ञा अध्ययन से वज्रस्वामी ने गगनगामिनी विद्या का उद्धार किया था। आचार्य वज्र के समय में दो बार भयंकर दुष्काल की स्थिति बन गई थी। प्रथम दुष्काल के समय वज्रस्वामी का पदार्पण पूर्व से उत्तरापथ की ओर हुआ। वहाँ पर अति क्षयकारी दुर्भिक्ष का अत्यंत विकट संकट उपस्थित हो गया था। धरा पर क्षुधा से आर्त लोग आकुल-व्याकुल हो गए। दुष्कालजनित संकट से घिर जाने पर शय्यातर सहित संपूर्ण संघ को पट पर बैठाकर गगनगामिनी विद्या के द्वारा आकाश-मार्ग से उड़ते हुए वज्रस्वामी उत्तर भारत से महापुरी (जगन्नाथपुरी) नगरी में पहुँचे। महापुरी में सुकाल की स्थिति थी। जैन लोग वहाँ सुख से रहने लगे। वज्रस्वामी भी वहीं विराजे। चतुर्मास प्रारंभ हुआ। महापुरी का राजा बौद्ध धर्म का अनुयायी था। पर्युषण पर्व मनाने में राजा की ओर से आने वाली बाधाएँ वज्रस्वामी के विद्याबल प्रयोग से निरस्त हो गईं। निर्ग्रंथ धर्म की महिमा मुख-मुख पर मुखरित हुई। राजा वज्रस्वामी का परम भक्त बन गया।
आर्य वज्र धर्म-प्रचार के साथ शिष्य समुदाय को आगम वाचना भी देते थे। आर्य तोषलिपुत्र के शिष्य आर्यरक्षित को उन्होंने सार्ध नौ पूर्वों का ज्ञान प्रदान कर पूर्वज्ञान की राशि को सुरक्षित किया था। वज्रस्वामी का मुख्य विहारक्षेत्र मालवा, मगध आदि स्थल थे। धर्म प्रभावना की दृष्टि से दुष्काल की घड़ियों में वे माहेश्वरी पुरी और हिमालय तक भी गए थे। ऐसा उल्लेख ‘प्रभावक चरित्र’ और ‘उपदेशमाला’ आदि ग्रंथों में है। दुष्काल का पुन: आगमन और अनशनआर्य वज्रस्वामी से संबंधित दक्षिणांचल की घटना विस्मयकारक है। एक बार वे यथोचित समय पर औषध लेना भूल गए थे। उन्हें अपनी स्मृति की क्षीणता पर आयुष्य की अल्पता का भान हुआ। इस समय उनके ज्ञानदर्पण में भावी अत्यंत भीषण दुष्काल के संकेत भी झलक रहे थे। वह वज्रस्वामी के समय में दुष्काल का द्वितीय बार आगमन था। आर्य वज्र को पिछले दुष्काल से भी आने वाला दुष्काल अति भयावह प्रतीत हुआ। गण-सुरक्षा हेतु पाँच सौ मुनियों सहित वज्रसेन को कङ्कुण देश में विहरण करने का आदेश दिया।
द्वादशवर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण दक्षिण विहारी श्रमण संघ को आहारोपलब्धि कठिन हो गई। वज्रस्वामी ने आपातकालीन स्थिति में क्षुधा शांति के लिए लब्धि-पिंड (लब्धि द्वारा निर्मित भोज्य सामग्री) ग्रहण करने का और विकल्प में अनशन स्वीकार का अभिमत शिष्यों के सामने प्रस्तुत किया। निर्मल चरित्र पर्याय के पालक आर्य वज्रस्वामी ने इस प्रकार के परामर्श प्रदान का प्रयोग शिष्यों के धृति परीक्षणार्थ ही किया होगा।
ताहे भणंति सव्वे, भत्तेणेएण सामि! अलमत्थु।
अणसणविहिणाववस्सं, साहिस्सामो महाधम्मं॥36॥