विश्वास और दोस्ती योग्य व्यक्ति के साथ करें : आचार्यश्री महाश्रमण
बामनिया, 14 जून, 2021
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार कर बामनिया पधारे। प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि पुरुष! स्वयं का मित्र स्वयं तू है, फिर क्या बाहर मित्र खोजता है।
ऐसी ही बात आगम में अन्यत्र कही गई है कि आत्मा मित्र है और आत्मा अमित्र है। दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा हमारी अमित्र है। सद्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा हमारी मित्र बन जाती है। हमें दो नयों पर ध्यान देना चाहिए। जैन दर्शन में दो नय-दो दृष्टिकोण बताए गए हैं निश्चय नय और व्यवहार नय।
अनेक कोणों से बात को, स्थिति को देखा जा सकता है। तुम ही तुम्हारे मित्र हो, यह बात सही है, निश्चय नय के परिप्रेक्ष्य में। परंतु अगर व्यवहार की भूमिका पर और व्यवहार जगत में देखा जाए, व्यवहार नय की दृष्टि से तो दूसरा कोई हमारा मित्र बन सकता है, हम भी किसी के मित्र बन सकते हैं।
एक नैश्चयिक सच्चाई होती है और एक व्यावहारिक सच्चाई होती है। जैसे कोई चलता है, तो कहता है, गाँव आ गया पर निश्चय की दृष्टि से देखें तो गाँव क्या आ गया तुम गाँव के निकट आ गए। व्यवहार की भाषा में गाँव आ गया, ऐसा कहा जा सकता है। बात दोनों ही सत्य है।
शास्त्रकार ने हमें जो बताया है, वो एक परमार्थ की बात का नैश्चयिक सत्य प्रकट कर दिया है। दूसरों को मित्र बनाना एक भूमिका तक तो हो सकता है। एक भूमिका से आगे बढ़ने पर कौन मेरा मित्र? केवलज्ञानी के लिए कौन शत्रु और कौन मित्र। वो तो अपनी साधना में संलग्न है। सामान्य आदमी कह सकता है, कि यह मेरा मित्र है।
एक भूमिका पर एक बात सही है, पर दूसरी भूमिका पर वह बात सही न भी ठहरे। तुम तुम्हारे शत्रु भी बन सकते हो। हमारी आत्मा जितना बड़ा शत्रु बन सकती है, दूसरा कोई नहीं बन सकता। जो नुकसान हमारी दुरात्मा बनी आत्मा कर सकती है, वह नुकसान एक कंठ काटने वाला दुश्मन भी नहीं करता।
मृत्यु जब सामने आती है, तब वह जानेगा कि मैंने गलत काम किए हैं। अब मेरी आत्मा शत्रु बन गई है। पश्चात्ताप करेगा कि मैंने ये-ये पाप किए हैं। एक आदमी क्षमावान है, तो इस माने में उसकी आत्मा मित्र बन गई। मृदु है, अहंकार नहीं है, सरल-ॠजु है, छल-कपट नहीं है, संतोष में है, लालच-लोभ नहीं ज्यादा, बाह्य आकर्षण नहीं है, अहिंसा में रत है, संयमी है, तपस्वी है, उसकी आत्मा उसकी मित्र बन गई। ये मित्र आत्मा के लक्षण है। इनके विपरीत जो आचरण है, उसकी आत्मा उसकी शत्रु है।
हमारे लिए धातव्य है कि हम हमारी आत्मा को ज्यादा से ज्यादा अपना मित्र बनाने का प्रयास करें। संसार में जो मित्र होते हैं, उनमें भी ध्यान दें कि मित्र किसको बनाएँ? संस्कृत में नीति का श्लोक है, उसमें कहा गया है कि एक साथ ज्यादा दोस्ती करना सामान्यतया बढ़िया नहीं। सूर्योदय के पूर्वार्ध में हमारी छाया लंबी होती है। धीरे-धीरे समय बढ़ते छाया छोटी हो जाएगी। ज्यों-ज्यों सूर्य ढलेगा धीरे-धीरे हमारी छाया लंबी होती जाएगी। दोस्ती भी वैसी ही है। दोस्ती मध्याह्न के सूर्य के बाद की तरह होनी चाहिए।
जो खल-दुर्जन आदमी है, उसकी दोस्ती सूर्योदय के समय वाले सूर्य के जैसी होती है। सज्जन आदमी की दोस्ती मध्याह्न से सायंकाल वाले सूर्य के समान होगी। दुर्व्यवहार किसी के साथ मत करो। सद्व्यवहार सबके साथ करो। विश्वास और दोस्ती किसी-किसी के साथ करो, सबके साथ नहीं। योग्य आदमी के साथ करो।
बुरे आदमी की संगति में रहने की अपेक्षा अकेला रहना कुछ अंशों में ज्यादा बढ़िया है। एकला चलो रे। योग्य या समान आदमी न मिले तो पापों और विषयों का वर्जन करते हुए अकेले चलें। मित्र कोई बात खराब कह दे तो उसे स्वीकार मत करो, उसे मना कर दो। मनुहार को बड़ी मिठास के साथ अस्वीकार किया जा सकता है। हर मनुहार मानना जरूरी नहीं है।
ये मित्र जगत है। मित्र कैसा हो, उसके छ: लक्षण बताए गए हैं। देना और लेना का संबंध हो, मित्र के सामने गोपनीय बात खोलकर बोल सकते हैं। उसकी गुप्त बातें पूछी भी जा सकती हैं। मित्र के घर पर जाकर नि:संकोच खाना खाया जा सकता है और मित्र को नि:संकोच खाना खिलाने बुलाया जा सकता है। ये छ: सांसारिक संबंध बताए गए हैं। हम अपनी आत्मा को मित्र बना लें। अपनी आत्मा को धर्म के द्वारा मित्र बनाया जा सकता है।
पूज्यप्रवर के स्वागत-अभिवंदना में स्थानीय सभाध्यक्ष महेंद्र मेहता, महिला मंडल अध्यक्षा उच्छव बम्ब, वर्धमान स्थानकवासी संघ से विमल मूथा, राजेश बम्ब, कमलेश बम्ब, कन्या मंडल, महिला मंडल, राजमल मेहता, सात्त्विक बम्ब, ज्ञानशाला ज्ञानार्थी उपस्थित थे।
कार्यक्रम का संचालन मुनि मनन कुमारजी ने किया।