साँसों का इकतारा
ु साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ु
(33)
सूर्य से भी अधिक जिसकी है प्रभा अनमोल।
कर दिया रोशन हृदय को द्वार उसके खोल॥
सृजन की चंचल तरंगों से अमित अनुराग
प्राप्त होता है अनवरत भक्तिपुष्प-पराग
तिमिर तट पर तेज का वैभव लिए चुपचाप
कर रहा आकृष्ट जिसका विमल विपुल विराग
उस मनस्वी चिर यशस्वी का अमल अभिषेक
उतर आए मौन आस्था के अधर पर बोल॥
देखता सपने सुनहरे जो नए दिन-रात
ज्योति-किरणों से खिला पुलकन भरा यह प्रात
आज वह दिन जब लिया उसने अकल्पित मोड़
सब दिशाएँ कर रहीं नत हो उसे प्रणिपात
संतुलन तप त्याग पौरुष और करुणाभाव
इन विलक्षण अतिशयों को कौन सकता तोल॥
ओढ़कर दायित्व गण का जो बना अभिराम
छोड़कर आराम को गति कर रहा अविराम
समय भी स्पर्धा कर जिसको न पाए जीत
खोलता ही जा रहा जो नित नए आयाम
है सृजन की चेतना फिर भी विसर्जन बात
इस विशद सापेक्षता का कौन आँके मोल॥
करिश्मा कर्तृत्व का पर हम सभी अनजान
कर सकें कैसे समय पर सत्य का संधान
विश्व इस नेतृत्व में युग-युग रहे गतिमान
उगे शत शरदों शुभंकर सुखद स्वर्ण विहान
मधुर से भी मधुरतर हो मधुरतम हर याम
कर अनुग्रह जिंदगी में अब सुधा दे घोल॥
(34)
आज तक गाया नहीं जो गीत ऐसा गुनगुनाऊँ।
आज तक पाया नहीं उपहार ऐसा मैं सजाऊँ॥
गुजरते हो जिस गली में तुम वही आबाद होती
देख तुमको मुस्कराती मनुज की हर आँख रोती
सफल सार्थक जिंदगी को कर रहे पुरुषार्थ-बल से
निखरते रहते सदा ज्यों सीप का नवजात मोती
ज्योति तुम देते रहो तो राह अपनी खुद बनाऊँ॥
मौन की मसि को कलम जब शब्द की अवगाह लेती
नए चिंतन को सदा नूतन सृजन की राह देती
दे रहा दस्तक न जाने कौन मेरे द्वार पर यह
छोड़ चिंता व्यर्थ की अब मैं स्वयं की थाह लेती
कल्पना के बीज बोकर खेत सपनों का उगाऊँ॥
लग रहा है आज घर-घर में अनूठा एक मेला
जग रही जन-जन हृदय में रातरानी और बेला
पर्व की शुचिता सहज ही दे रही उम्मीद युग को
आ रहा बहकर क्षितिज से रोशनी का एक रेला
इस गुलाबी पर्व पर मन के गुलाबों को खिलाऊँ॥
(क्रमश:)