संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

६. समितो मनसा वाचा, कायेन भव सन्ततम्। 
    गुप्तश्च मनसा वाचा, कायेन सुसमाहितः॥
तू मन, वचन और काया से निरन्तर समित-सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला तथा मन, वचन और काया से गुप्त और सुसमाहित बन।
निवृत्ति अक्रिया जीवन का साध्य है। प्रवृत्ति साध्य नहीं, किन्तु जीवन की सहचरी है। कोई भी व्यक्ति शरीर की विद्यमानता में पूर्ण निवृत्त नहीं हो पाता। प्रवृत्ति का पहला चरण है कि वह प्रवृत्ति सुप्तदशा-यांत्रिक दशा में न हो, पूर्ण होश सजगतापूर्वक हो। प्रवृत्ति में होने वाली गन्दगी, अशुद्धि को सावधानता जला डालती है, वह उसे सम्यग् बना देती है। सजगता के अभाव में प्रवृत्ति के साथ क्रिया तन्मय होकर गन्दगी ले आती है। व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। प्रवृत्ति का दूसरा चरण है प्रवृत्ति को निवृत्ति में बदलना।
गुप्ति है गोपन, संवरण। शरीर को स्थिरकर, मन को शांत कर, मौन होकर कुछ समय के लिए प्रवृत्ति को विश्राम देना, जिससे उस अक्रिय आत्मा की झांकी प्रतिबिबिंत हो सके।
७. अनुत्पन्नानकुर्वाणः, कलहांश्च पुराकृतान्। 
    नयन्नुपशमं नूनं, लप्स्यसे मनसः सुखम्॥
तू नये सिरे से कलहों को उत्पन्न मत कर और पहले किए हुए कलहों को उपशांत कर, इस प्रकार तुझे मानसिक सुख प्राप्त होगा। 
८. क्रोधादीन् मानसीन् वेगान्, पृष्ठमांसादनं तथा। 
    परित्यज्याऽसहिष्णुत्वं, लप्स्यसे मनसः स्थितिम्।।
क्रोध आदि मानसिक वेगों तथा चुगली और असहिष्णुता को छोड़, इस प्रकार तुझे मन की स्थिरता प्राप्त होगी।
जार्ज गुरजिएफ ने कहा है- 'तुमने जो पाप किए हैं इनके कारण परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, क्योंकि ये सब तुमने बेहोशी में किए हैं। बेहोश को अदालत भी माफ कर देती है।' महावीर ने मेघ को शंतिसूत्र दिया है-वर्तमान क्षण में जीना 'खणं जाणाहि पंडिए।' आदमी जीते हैं अतीत और भविष्य में। स्मृति और कल्पना में जीने का अर्थ है-बेहोशी प्रमाद में जीना। 'समयं गोयम मा पमायए'- महावीर का यह जागरूकता अप्रमत्तता का सन्देश लाखों, करोड़ों व्यक्तियों की जबान पर है, किन्तु कितने व्यक्तियों के जीवन का स्पर्श कर रहा है यह कहना कठिन है। वर्तमान या होश में जीने का अर्थ है-भविष्य में पाप का न होना। जो साधक मन के प्रति और शरीर के प्रति जागृत रहता है वह अंतर में उठनेवाली असत् तरंगों का वहीं निर्मूलन कर देता है, बाहर प्रकट नहीं होने देता और सतत शुभ भावों, संकल्पों से स्वयं को प्रभावित रखता है। क्रोधादि वेगों का प्रभाव बेहोशी में ही होता है। 
जार्ज गुरजिएफ साधर्को को क्रोध करने के लिए कहता। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता कि व्यक्ति आग-बबूला हो जाता। जब पूरे क्रोध में आ जाता तब कहता 'देखो! क्या हो रहा है? आदमी चौंककर देखता हाथ, चेहरा, होंठ, आंखें और शरीर को एक विपरीत अस्वाभाविक दशा में और वह एक क्षण में उससे पृथक् हो जाता। समस्त पापों, अशुभों से बचने और दूर रहने का मौलिक सूत्र है-देखना, सावधान रहना।