स्वर्णाक्षरों में अंकित एक नाम - आचार्य भिक्षु

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मुनि चैतन्य कुमार ‘अमन’

स्वर्णाक्षरों में अंकित एक नाम - आचार्य भिक्षु

तीन सौ वर्ष पूर्व जिस व्यक्ति ने जन्म लिया था और जिसका नाम आज भी इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है, जिनकी साधना और आराधना आज भी प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान कर रही है — इसका अर्थ है कि वह एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। सचमुच, वह एक महापुरुष थे, जिनके पदचिन्हों पर लाखों-लाखों व्यक्ति चलने को आतुर हैं। जिनकी वाणी में अमरत्व का संदेश है, ऐसे महापुरुषों का व्यक्तित्व और कर्तृत्व सदैव भवी जीवों के लिए मार्गदर्शक होता है। वे जीवन नैया को पार लगाने की एक मजबूत पतवार के समान हैं, जिसके सहारे संसार-सागर को पार किया जा सकता है।
वह व्यक्तित्व भिक्षु नाम से विश्रुत है। नाम था जिनका ‘भीखण’। जिन्होंने गृहस्थ जीवन में कुछ समय बिताने के बाद वैराग्य भाव जाग्रत किया और संयम पथ पर अग्रसर होने के लिए तैयार हो गए। भरी जवानी में पत्नी का वियोग, नश्वरता का अवबोधन और फिर वह कल्याण मार्ग की ओर चलने के लिए लालायित हो गए। माता के मन में पुत्र के मोह की चेतना उन्हें रोक रही थी। उन्होंने माता को न केवल समझाया, बल्कि भावी जीवन के लिए व्यवस्था भी सुनिश्चित की। अंततः मां की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने दीक्षा स्वीकार कर साधना के मार्ग पर कदम बढ़ाया। महावीर की वाणी को आधार बनाकर आगम वाणी का वाचन, पठन और मनन प्रारंभ हुआ।
कुछ जिज्ञासाएं उभरीं। समाधान स्वयं खोजा, गुरु के समक्ष जिज्ञासाएं रखीं, परंतु संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। संकल्प-विकल्प चलते रहे। अंततः सटीक चिन्तन, निर्णय और क्रियान्विति के लिए तत्पर हो गए। मन में एक ही भावना थी कि जिस उद्देश्य से घर-बार छोड़ा है, उस उद्देश्य की पूर्ति करनी है। यद्यपि जानते थे कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कष्ट आएंगे, लेकिन कष्टों से घबराना कायरता का प्रतीक होता है। यदि कष्ट आएंगे, तो आएंगे, पर मुझे अपना सम्यक् चुनाव कर आगे बढ़ना होगा। आगम वाणी के आधार पर 'जं खेयं तं समायरे' — जो श्रेयस्कर है, उसका ही आचरण करना है।
अभिनिष्क्रमण कर वे साधना के मार्ग पर चल पड़े। आहार और स्थान संबंधी अनेक कष्ट आए, मानसिक कष्ट भी झेले, पर वे निश्चिंत होकर चलते रहे। योग ऐसा बना कि स्वयं की साधना के साथ-साथ परकल्याण के भी योग बने। सहज योग से काफिला जुड़ता गया। पंथ का निर्माण हुआ, नाम मिला 'तेरापंथ' — अर्थात् हे प्रभो! आपका पंथ, हम हैं आपके पथिक।
जहां संघ होता है, वहां मर्यादाएं, अनुशासन, व्यवस्था और आज्ञा भी होती है। मर्यादाएं बनीं, पर थोपी नहीं गईं — सहज मन से स्वीकृत की गईं। थोपा हुआ नियम कानून होता है, मर्यादा वह होती है जो सहज स्वीकृति से स्वीकार की जाए — तभी उसकी पालना संभव होती है। आचार्य भिक्षु विलक्षण प्रतिभा के धनी और दूरदर्शी आचार्य थे। उन्होंने भावी को समझते हुए मर्यादाएं बनाईं और आज भी वे मर्यादाएं अक्षुण्ण रूप से पालन हो रही हैं। भावी की डोर उत्तरवर्ती आचार्यों को सौंप दी। जैसा उपयुक्त समझें, परिवर्तन या संशोधन का अधिकार आचार्य के पास हो — यह व्यवस्था बनाई।
वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण जी ग्यारहवें अनुशास्ता हैं, जिनके नेतृत्व में आचार्य श्री भिक्षु का 300वां जन्मदिवस संघ द्वारा भव्य रूप में मनाया जा रहा है। मैं इस अवसर पर अपना सर्वस्व समर्पण आचार्य भिक्षु एवं तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता के श्रीचरणों में अर्पित कर, साधना के मार्ग पर अग्रसर होता रहूं — यही मेरी अंतः भावना है।
पुनः-पुनः आचार्य श्री भिक्षु की वह संयममयी उत्कृष्ट साधना हमारे जीवन को आलोकित करती रहे और अंत में अंतिम लक्ष्य — सिद्धगति, मोक्ष — की प्राप्ति की प्रबल भावना बनी रहे।