हर असफलता से सफलता की प्रेरणा ली जा सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण
पेटलावद, 12 जून, 2021
पेटलावद का त्रि-दिवसीय प्रवास का दूसरा दिवस। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि यह पुरुष! अनेक चित्त वाला होता है। आदमी के भीतर एक भावों का जगत है और इस चित्त के, मन के चित्रपट्ट पर कभी अच्छे तो कभी बुरे भाव उभरते हैं।
प्रश्न होता है कि ये नियामक-संचालक कौन है? ऐसा प्रतीत होता है कि मोहनीय कर्म का इसके साथ गहरा संबंध है। जब-जब मोहनीय कर्म प्रभावी होता है, हावी होता है, हमारे भीतर कर्म आबद्ध है मोहनीय कर्म ही इसका संचालक है।
जैन दर्शन कर्मवाद को मानता है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रमुख सिद्धांत है। कर्म की अपनी व्यवस्थाएँ-नियम हैं। किस कर्म की कितनी स्थिति, कितना अबाधकाल आदि-आदि हमारे भीतर दुर्भाव उभरते हैं, तो मानना चाहिए, ये मोहनीय कर्म अभी प्रभावी है। उसके ाव से भाव खराब हो रहे हैं।
मोहनीय कर्म का विलय या अभाव होता है तो आदमी के भाव अच्छे रह सकते हैं। भाव के बाद आदमी के योग के साथ भी मोहनीय कर्म जुड़ा रहता है। दो शब्द हैंउदय भाव और क्षयोपशम भाव। सामान्य आदमी के जीवन में जब मोहनीय कर्म का उदय होता है तो भाव खराब हो जाते हैं। जब मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भाव-हलकापन रहता है तो फिर वे भाव अच्छे रूप में उभर सकते हैं।
मोहनीय कर्म का प्रभाव या अभाव भाव का निर्णायक है। हमारे भीतर का मोहनीय कर्म कभी-कभी विशेष उभार का भाव आ जाता है। आदमी शांत बैठा है, किसी ने आकर अंटशंट बोलना शुरू कर दिया तो आदमी उत्तेजित हो गया। निमित्त मिला और गुस्सा प्रकट हो गया। मोहनीय कर्म को उभारने में ये बाहर के निमित्त सहयोगी बन सकते हैं। पर मूल उपादान तो भीतर में है।
संयोग या प्रभाव कह दें उससे गुस्सा उभर आता है और मोहनीय कर्म के वियोग या अभाव से आदमी शांत रहता है। इस तरह हमारे भाव जगत का संचालक-व्यवस्थापक मोहनीय कर्म है।
बुरे भावों को कैसे आने से रोका जाए? बुरे भावों को रोकने के लिए अध्यात्म की साधना की अपेक्षा होती है। ऐसा मनन, चिंतन, अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय आदि आध्यात्मिक प्रयोग, जिनसे हम अपने मन को मलिन भावों से संयुक्त होने से बचा सकते हैं।
मोहनीय कर्म का विपाक-उदय हुआ, मन दूषित हो गया तो हमें विनम्र युद्ध करना चाहिए। मोहनीय कर्म अपना प्रभाव दिखा सकता है, तो हमारी शुद्ध चेतना अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखा सकती। मन में गुस्सा आने लग गया, तो आदमी सोचे मैं मौन हो जाऊँ। मौन रहने का प्रयास करना, शुद्धता की ओर से उस गुस्से को रोकने का प्रयास है।
मन ही मन जप करना शुरू कर दें उवसणे हणे कोहं। उपशम से क्रोध का नाश करो। यह जप उस मोहनीय कर्म को नष्ट करने का प्रयास करेगा। मोहनीय कर्म चेतना की अशुद्धता का अंश है और मोहनीय कर्मविहीन जो शुद्ध चेतना है, वह चेतना की शुद्धता का अंश है। यह शुद्धता और अशुद्धता में संघर्ष होता है। युद्ध में किसी की भी विजय हो सकती है। युद्ध करने वाला डरे नहीं, विजय शुद्धता से कभी भी मिल सकती है।
यह आत्म-युद्ध की बात है। अपने आपसे युद्ध करो, बाह्य युद्ध से क्या मतलब। युद्ध करने वाले के पास मनोबल व युद्ध की सामग्री भी चाहिए तो युद्ध में सफलता मिल सकती है। अगर असफलता मिल भी जाए तो भी युद्ध करना अच्छी बात है। भगोड़ा बनना मरने से भी खराब चीज है। समरांगण में भागे क्यों?
कहीं बलवान जीव हो जाता है, तो कहीं ये मोहनीय कर्म बलवान हो जाता है। मोहनीय कर्म को पछाड़ने का प्रयास न हो तो यह अनंत काल चलता रहेगा। प्रयास होगा तो एक दिन तो समाप्त होगा ही। हारकर निराश होकर बैठे नहीं। एक बार फिर प्रहार करो। हर असफलता से सफलता की प्रेरणा भी ली जा सकती है। असफलता के कारणों का चिंतन कर उनका निराकरण करें।
चाहे युद्ध हो या चुनाव हो, जीवन भी हमारा एक समरांगण है। आध्यात्मिक युद्ध भी होता रहे। कुछ कदम आगे तो बढ़े। हार-हार में और जीत-जीत में अंतर हो सकता है। इस जीवन में अच्छा पुरुषार्थ करते रहें तो विजय की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
ज्ञानशाला, महिला मंडल व कन्या मंडल की सुंदर प्रस्तुति हुई। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में मूलचंद कासवां, पवन भंडारी, प्रदीप पटवा, महेश भंडारी, संगीता-अनिता भंडारी, श्रेया पटवा, मुदित पटवा, निर्मला पटवा, ललिता देवी भंडारी, सचिन ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि मनन कुमार जी ने किया।