संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

जार्ज गुरजिएफ साधकों को क्रोध करने के लिए कहता। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता कि व्यक्ति आग-बबूला हो जाता। जब पूरे क्रोध में आ जाता तब कहता 'देखो! क्या हो रहा है? आदमी चौंककर देखता हाथ, चेहरा, होंठ, आंखें और शरीर को एक विपरीत अस्वाभाविक दशा में और वह एक क्षण में उससे पृथक् हो जाता। समस्त पापों, अशुभों से बचने और दूर रहने का मौलिक सूत्र है-देखना, सावधान रहना।
९. पादयुग्मञ्च संहत्य, प्रसारितभुजोभयः। 
      ईषन्नतः स्थिरदृष्टिर्लप्स्यसे मनसो धृतिम्।।
दोनों पैरों को सटाकर, दोनों भुजाओं को फैलाकर, थोड़ा झुककर तथा दृष्टि को स्थिर बना, इस प्रकार मानसिक धैर्य को प्राप्त होगा। यह जिनमुद्रा है। ध्यान के लिए चार मुद्राओं का उल्लेख मिलता है-
१. जिनमुद्रा, 
२. योगमुद्रा, 
३. वंदनामुद्रा, 
४. मुक्तासुक्ति मुद्रा।
चित्त को स्थिर और एकाग्र करना मुद्राओं का प्रयोजन है। इससे कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास होता है, साधक की मानसिक धृति बढ़ती है।
१०. प्रयत्नं नाधिकुर्वाणोऽलब्धांश्च विषयान् प्रति। 
      लब्धान् प्रति विरज्यंश्च, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि।।
अप्राप्त विषयों पर अधिकार करने का प्रयत्न मत कर और प्राप्त विषयों से विरक्त बन, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
'बलख' का बादशाह इब्राहिम साम्राज्य को छोड़ कर फकीर हो गया। वह फकीरी के वेष में भारत-यात्रा पर आया। एक संत से भेंट हुई। उसने पूछा-संत कौन होता है? संत ने कहा-मिले तो खा ले और ना मिले तो सन्तोष रखे।
इब्राहिम ने कहा-यह तो कोई बहुत बड़ा लक्षण नहीं है। इतना तो एक कुत्ता भी कर लेता है। संत ने कहा-तो आप बताएं। उसने कहा-जो कुछ मिले उसे बांट कर खाएं और न मिले तो समझे चलो, आज उपवास व्रत ही सही। प्राप्त में सन्तोष और अप्राप्त का आकर्षण नहीं रखना शांति का 'सहज उपाय है। सन्तोष वही नहीं कि आप के पास है भी नहीं, और आप उसका सन्तोष करें। सन्तोष भविष्य में नहीं, वर्तमान में है। संतुष्ट आप आज रह सकते हैं, कल में नहीं। कल अशांति का लक्षण है। महावीर कहते हैं-अप्राप्त पदार्थों को प्राप्त करने में जो व्यग्र नहीं और प्राप्त में परम संतुष्ट है, जो मिला है, उसमें प्रसन्न रह सकता है, वह संतुष्ट है।