कृत कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 11 नवंबर, 2021
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि सूयगड़ो आगम में शास्त्रकार ने कर्मवाद के संदर्भ में प्रज्ञापन किया है कि इस संसार में प्राणी अपने-अपने कर्मों के द्वारा दु:खी बनते हैं। प्राणी भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। कर्म भी अपने-अपने हैं। 84 लाख जीव योनियाँ बताई गई हैं। अपने कर्मों से प्राणी सुख या दु:ख पा लेते हैं। पुण्य-पाप अपना-अपना होता है। प्राणी स्वयं अपनी क्रियाओं से, अपने आचरणों से, कर्मों का उपचय, संग्रहण और पुष्टिकरण करता है। जो कर्म बंध जाते हैं, फिर उनका फल भी प्राणी को भोगना होता है। अन्यत्र कहा गया है कि जब कर्मों के उदय से दु:ख आता है, तो ज्ञाति लोग, स्वजन, मित्रवर्ग और भाई है, वो दु:ख को बँटा नहीं सकते। अकेला स्वयं प्राणी कर्म का फल भोगता है, क्योंकि कर्म तो अपने कर्ता का अनुगमन करता है, उसी को फल देता है। एक मनुष्य जाति को हम देखें, आदमी भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। विद्वान भी हैं, अज्ञानी भी हैं। शरीर की आकृति अलग-अलग होती है। शारीरिक शक्ति, स्वभाव, आयुष्य, प्रभाव, प्रतिष्ठा, शक्ति (अंतराय कर्म) में भिन्नता होती है। पशुओं में भी भिन्नता होती है। पुण्य-पाप का अपना-अपना योग होता है। देव-जगत में भी अंतर होता है। कर्मों के कारण से भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। पुण्य की इच्छा करना भी बढ़िया नहीं है, उदय में आए वो बात अलग है। साधना से पुण्य का बंध हो सकता है। आदमी कामना निर्जरा की करे। सिद्धांत है, हमारी मान्यता में कि पुण्य का बंध निर्जरा के साथ ही होता है। बिना निर्जरा के कोरा पुण्य नहीं। जैसे अनाज के साथ भूसी। पुण्य सहचार है। भूसी के लिए कोई खेती नहीं करता। हमारा मूल लक्ष्य निर्जरा का हो। निर्जरा और संवर दो चीज हैं। पर महत्त्वपूर्ण तो संवर ज्यादा है। हमारी मान्यता में चार गुणस्थान तक संवर नहीं माना गया, पर निर्जरा हो सकती है। मिथ्यात्व आश्रव चौथे गुणस्थान में नहीं होता। निर्जरा करने वाले को मुक्ति मिले या न भी मिले। पर संवर जिसके हो गया उसे मुक्ति मिलेगी ही। निर्जरा में भजना है, संवर में नियमा है। निर्जरा के साथ संवर न भी हो, पर संवर की साधना जिसने कर ली है, उसके निर्जरा होगी ही होगी। यह बात तय है। कर्मों के मार्ग को रोकने के लिए संवर की साधना जरूरी है और पूर्वार्जित कर्मों को क्षीण करने के लिए निर्जरा-तप का महत्त्व है। आत्मा की उज्ज्वलता निर्जरा है। आदमी ने वर्तमान भव में तो पाप ज्यादा नहीं किए पर पिछले भवों के कर्म उदय में आते हैं, तो आदमी दु:खी हो सकता हैं। पता नहीं किस कर्म का फल किस जन्म में भोगना पड़ जाए। आदमी पाप कर्मों के सेवन से बचने का प्रयास करे, यह काम्य है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि जिज्ञासा के बिना शास्त्र का विकास नहीं हो सकता। ज्ञान को बढ़ाने के संदर्भ में हमें जिज्ञासा करनी होगी और उसे सुनने की इच्छा करनी होगी। टीपीएफ द्वारा पाँचवाँ राष्ट्रीय डॉक्टर सम्मेलन पूज्यप्रवर की सन्निधि में शुरू हुआ। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि आदमी के जीवन में दो तत्त्वों का योग होता हैआत्मा और शरीर। मृत्यु हैआत्मा और शरीर का वियोग। मोक्ष हैहमेशा के लिए शरीर से आत्मा का मुक्त हो जाना। यह हमारा स्थूल शरीर होता है। स्थूल शरीर के सिवाय दो शरीर और होते हैं। तेजस और कार्मण शरीर। जीवनशैली कैसी हो यह स्थूल शरीर का विषय है। शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा हो। मानसिक और भावात्मक शरीर के साथ सामाजिक शरीर भी होता है। डॉक्टर का क्षेत्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तक हो सकता है, भावनात्मक स्वास्थ्य आध्यात्म-जगत का विषय बनता है। टीपीएफ आध्यात्मिक, धार्मिक विकास करता रहे। डॉक्टर का एक काम तो चिकित्सा सेवा का है, दूसरा काम है कि उसका व्यक्तिगत जीवन भी अच्छा रहे, शांति रहे। साथ में थोड़ा समय धार्मिक प्रवृत्ति के लिए चलता रहे, ये हमारी आत्मा के लिए है। अच्छी प्रेरणा मिले, अच्छा विकास हो। टीपीएफ से डॉ0 अनिल भंडारी, डॉ0 चेतन सामरा व डॉ0 रणजीत नानावटी ने अपने भाव रखे। तिस्ता झाबक ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। जैविभा के वाइस चांसलर बच्छराज दुगड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। बच्छराज दुगड़ एवं अन्य पदाधिकारियों ने जैविभा ब्राउसर श्रीचरणों में लोकार्पित किया।
समणी कुसुमप्रज्ञा जी ने अपनी भावना रखी। जैविभा ब्राउसर के बारे में पूज्यप्रवर ने फरमाया कि जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट डीम्ड यूनिवर्सिटी परमपूज्य आचार्य तुलसी के समय में इसका जन्म हुआ था। इस संस्थान के द्वारा कितना कार्य किया जा रहा है। अन्य संप्रदाय के साधु भी इस संस्थान से डिग्री प्राप्त करते हैं। उपकार का काम होता है। जैनत्व का प्रभाव बना रहे।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।