दुनिया में सबसे ज्यादा गतिशील है आदमी का मन : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 12 नवंबर, 2021
तपोनिधि शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण जी ने सूयगड़ो आगम की व्याख्या करते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने बताया हैमृत्यु एक दिन होती ही है। कई बार जीवन काल में ही आदमी को एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाना पड़ सकता है। देव, गंधर्व, राक्षस, असुर, पातालवासी नाग कुमार, राजा, जन साधारण, श्रेष्ठी और ब्राह्मण ये सभी दु:खपूर्वक अपने-अपने स्थान से च्युत हो सकते हैं।
कर्मवाद का सिद्धांत जैन दर्शन में प्रतिष्ठित है। जैन दर्शन में आत्मवाद एक मुख्य सिद्धांत है कि आत्मा है, वह शरीर से पृथक् अस्तित्व वाली है। वह त्रैकालिक है और शाश्वत है। यह आत्मवाद का सिद्धांत है। कर्मवाद में आत्मा तो है ही,
पर आत्मा के कर्मों का बंध भी होता है। कर्म के अनुसार फिर जन्म-मरण का चक्र भी चलता है। प्राणी सुख-दु:ख का संवेदन करता है। कर्मवाद के साथ जुड़ा हुआ सिद्धांत है क्रियावाद। क्या करने से कौन-से कर्म का बंध होता है। एक लोकवाद भी सिद्धांत है कि ये दुनिया भी है। लोकालोक वाद भी है। जैन दर्शन में अलोकाकाश का अपना अस्तित्व है। लोकाकाश तो थोड़ा सा है, अलोकाकाश तो अनंत पड़ा है। आकाश का कोई ओर-छोर नहीं। दुनिया में सबसे बड़ा तत्त्व आकाश है। परिमाण में भी आत्मा आकाश से बड़ी नहीं है। केवली समुद्घात में आत्मा पूरे लोक में फैलती है। वह प्रक्रिया अल्पकाल की है। आलोक में नहीं फैलती है। दुनिया में सबसे आसान काम दूसरों की निंदा करना है। दुनिया में सबसे कठिन काम हैअपनी पहचान, अपनी आत्मा की पहचान। दुनिया में सबसे ज्यादा गतिशील हैआदमी का मन। कितने विचार आते-जाते रहते हैं। कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। आत्मवाद, कर्मवाद, क्रियावाद और लोकावाद ये जैन दर्शन के चार मुख्य सिद्धांत हैं। हमारे टीपीएफ के लोग बैठे हैं। ये जैन दर्शन के जो सिद्धांत हैं, उनका अध्ययन करें, जानने का प्रयास किया जा सकता है। इन पर हमारे ग्रंथ भी आगमों के आधार पर आए हुए हैं। कर्मवाद से देवों को भी च्युत होना पड़ता है। कई प्रकार के देव हैं। कर्म चढ़ा भी देते हैं और उतार भी देते हैं। कर्म एक तरह की लिफ्ट है, यह एक प्रसंग से समझाया। आदमी अपने पूर्वार्द्ध या उत्तरार्द्ध में ऊँचे-नीचे पहुँच जाता है। कर्मों में मौलिक रूप में और आध्यात्मिक रूप में भी उन्नति-अवनति कराने की शक्ति होती है। पद-प्रतिष्ठा और अर्थ भौतिकता से जुड़ी चीजें हैं। पर आदमी ने आत्मा की दृष्टि से क्या प्राप्त किया, वे खास बात है। हम आत्मा के लिए क्या करते हैं? त्याग-संयम हमारे जीवन में कितना है। ये महत्त्वपूर्ण है। आदमी मंत्री बने या न बने पर अच्छा आदमी हमेशा बना रहे। श्रावक जीवन भर रह सकते हैं, पद भले मिले या न मिले। पद तो अस्थायी है। श्रावक की पदवी हमेशा बनी रहे। मेरा त्याग-प्रत्याख्यान सामायिक, तत्त्वज्ञान, श्रद्धा बनी रहे। ये श्रावकत्व के जो आयाम हैं, वो अंतिम श्वास तक बने रहें। मेरा सम्यक्त्व इस जन्म तक ही नहीं, आगे भी कायम रहे। वो कभी न छूट जाए। श्रावक यह भी सोचे कि कभी वो दिन आए, मैं साधुत्व का पद प्राप्त करूँ। श्रावकत्व मेरा और निखारत्व को प्राप्त हो। आदमी कर्मवाद को समझ करके पाप कर्म से बचने का यथोचित प्रयास रखे, यह काम्य है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि स्वाध्याय का एक प्रकार हैपृच्छा यह भी कर्म निर्जरण का हेतु बनती है, आत्मा निर्मल बनती है। प्राचीन काल में ज्ञान की एक प्रक्रिया चलती थी। किस प्रकार उस समय ज्ञान को सुरक्षित रखा जाता था। उसके आगमकालीन पाँच अंग हैं। साध्वीवर्या जी ने कहा कि हमारा जीवन एक सुंदर बगीचा है। उसको अच्छा बनाए रखने के लिए हमें भी एक सुरक्षा बाड़ की अपेक्षा है। वह बाड़ हैइंद्रिय संयम। मुख्य प्रवचन के पश्चात तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम के 14वें वार्षिक अधिवेशन का शुभारंभ हुआ। टीपीएफ के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि रजनीश कुमार जी, राष्ट्रीय अध्यक्ष नवीन पारख, मुख्य न्यासी एम0सी0 बालडोआ, टीपीएफ गौरव से सम्मानित होने वाले संपतमल नाहटा ने अपनी भावनाएँ श्रीचरणों में व्यक्त की। आचार्यप्रवर ने अपने आशीर्वचन में फरमाया कि टीपीएफ एक बौद्धिक संस्था है। इसके सदस्यों में बौद्धिकता के साथ विज्ञान और आध्यात्मिकता का समावेश हो जाए तो संस्था और आगे बढ़ सकती है। नवी मुंबई से सुरेश नायक ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।