भाव, नीति और कार्य हों निर्मल : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 29 जुलाई, 2025

भाव, नीति और कार्य हों निर्मल : आचार्य श्री महाश्रमण

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि जीव के कर्म बंधते हैं। जैन शास्त्रों में आठ कर्म प्रसिद्ध हैं। शास्त्र में बताया गया है कि पाप कर्म करने वाला जीव नरक में पैदा होता है। नरक में भी तरतम्यता होती है। सभी जीव प्रगाढ़ वेदना को भोगें यह आवश्यक नहीं है। कोई ज्यादा दुःख पाता है तो कोई कम दुःख पाता है। सात प्रकार के नरक बताए गए हैं। देवगति में भी अनेक प्रकार के भेद होते हैं। उनके आयुष्य में अंतर होता है। नरक और देवगति के जीवों में अनेक समानताएं भी होती हैं। नरक हो या देवगति, जघन्य आयुष्य समुच्चय रूप में दस हजार वर्ष का होता है। उत्कृष्ट आयुष्य भी दोनों गतियों में तैंतीस सागरोपम का होता है। दोनों ही गतियों में वैक्रिय शरीर होता है। नरक का जीव आयुष्य पूरा करके नरक में पैदा नहीं होता, इसी प्रकार देवगति का जीव भी आयुष्य पूरा होने के बाद देवगति में पैदा नहीं होता। दोनों ही गतियों से च्युत होने वाले जीव मनुष्य या तिर्यंच योनि में जा सकते हैं। देवगति और नरकगति, दोनों से निकलने वाला जीव मनुष्य बनकर तीर्थंकर बन सकता है।
‘आयारो’ आगम में बताया गया है कि नरक में जाने वाले जीव प्रगाढ़ निष्ठुर वेदना को भोगने वाले हो सकते हैं। उसी प्रकार स्वर्ग की प्राप्ति में भी प्रगाढ़ रूप से अच्छे कर्म होते हैं तो उसका अच्छा फल मिल सकता है। जिन प्राणियों के मन नहीं होता, अर्थात असंज्ञी प्राणी, वे ज्यादा पाप नहीं कर सकते तो वे मरकर खराब गति में नहीं जा सकते और ज्यादा अच्छे कार्य करके अच्छी गति को भी प्राप्त नहीं कर सकते। जिस प्राणी के पास मन की शक्ति होती है, वह सबसे निकृष्ट गति में भी पैदा हो सकता है और सर्वोत्कृष्ट गति को भी प्राप्त कर सकता है।
अतः व्यक्ति को अपने भाव, अध्यवसाय को अच्छा रखने का प्रयास करना चाहिए। एक डॉक्टर और डाकू दोनों पेट चीरते हैं, लेकिन दोनों के विचारों में अंतर होता है। डॉक्टर रोगी के रोग निवारण के लिए ऐसा करता है और डाकू धन का हरण करने के लिए ऐसा कार्य करता है। इसलिए भावों और परिणामों में अंतर होता है। कोई कार्य करने के पीछे इरादा क्या है, इसका परिणामों पर विशेष प्रभाव पड़ता है और कर्मों का बंध हल्का अथवा गंभीर हो सकता है।
जैसी भावना होती है, वैसी ही निष्पत्ति भी प्राप्त होती है। भावनाओं में अनासक्ति होती है तो ज्यादा पाप कर्म का बंध नहीं होता, लेकिन भावना खराब होती है तो उसका परिणाम भी खराब होता है। इसलिए व्यक्ति को अपने भावों को निर्मल बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। भाव भी निर्मल हों, नीति भी शुद्ध हो और कार्य भी निर्मल रूप में हो, धार्मिक क्रियाएं अच्छे रूप में चलें तो उसकी आत्मा का कल्याण संभव है। इसलिए शास्त्र में बताया गया है कि जैसा अध्यवसाय होता है, वैसा ही फल भी प्राप्त होता है।
आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त उपस्थित जनता को ‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान से लाभान्वित किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती की समण संस्कृति संकाय विभाग के अंतर्गत आयोजित जैन विद्या का 25वां दीक्षान्त समारोह कार्यक्रम समायोजित हुआ। इस संदर्भ में जैन विश्व भारती के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कीर्तिकुमारजी ने अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। जैन विश्व भारती के अध्यक्ष अमरचंद लूंकड़, समण संस्कृति संकाय विभाग के सहविभागाध्यक्ष हनुमान लूंकड़ ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि विद्या और चारित्र मोक्ष का मार्ग है। जैन विद्या में अनेक विषय समाविष्ट हो जाते हैं। जैन विश्व भारती के नाम में ही जैन विद्या समाविष्ट है। कितने वर्षों से जैन विद्या का उपक्रम चलाया जा रहा है। जैन विद्या को प्रसारित करने में अच्छी सहायक बन रही है। यह संकाय ज्ञान का प्रसार करने में योगदान देती रहे। जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों आदि ने सम्यक् दर्शन कार्यशाला के बैनर को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया। आचार्यश्री ने संथारा करने वाली रेशमीदेवी चौपड़ा के परिजनों को आध्यात्मिक संबल प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।