
स्वाध्याय
संबोधि
आयुष्य कर्म का बंध जीवन के तीसरे भाग में होता है। उस तीसरे का पता नहीं चलता कि यह तीसरा है। असावधान व्यक्ति वह क्षण चूक जाता है। और उस क्षण को चूकने का अर्थ है-जीवन को चूक जाना। इसलिए मैं कहता हूं-क्षण-क्षण जागृत रहो। यह समझते रहो यह तीसरा ही क्षण है। जो इस प्रकार जीवनयापन करता है, सावधान, जागृत रहता है वह मृत्यु पर विजय पा लेता है, भय से मुक्त हो जाता है।
२२. कृष्णा नीला च कापोती, पापलेश्या भवन्त्यमूः।
तैजसी पद्मशुक्ले च, धर्मलेश्या भवन्त्यमूः॥
पाप-लेश्याएं तीन हैं-कृष्ण, नील और कापोत। धर्म लेश्याएं भी तीन हैं-तैजस, पद्म और शुक्ल ।
२३. तीव्रारम्भपरिणतः, क्षुद्रः साहसिकोऽयतिः।
पञ्चास्रवप्रवृत्तश्च, कृष्णलेश्यो भवेत् पुमान्॥
जो तीव्र हिंसा में परिणत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य करता है, भोग से विरत नहीं है और पांच आस्रवों में प्रवृत्त है, वह व्यक्ति कृष्णलेश्या वाला होता है।
२४. ईर्ष्यालुद्धेषमापन्नो, गृद्धिमान् रसलोलुपः।
अडीकश्च प्रमत्तश्च, नीललेश्यो भवेत् पुमान्॥
जो ईष्यालु है, द्वेष करता है, विषयों में आसक्त है, सरस आहार में लोलुप है, लज्जाहीन और प्रमादी है, वह व्यक्ति नीललेश्या वाला होता है।
२५. वक्रो वक्रसमाचारो, मिध्यावृष्टिश्च मत्सरी।
औपधिको दुष्टवादी, कापोतीमाश्रितो भवेत्॥
जिसका चिंतन, वाणी और कर्म कुटिल होता है, जिसकी वृष्टि मिथ्या है, जो दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं करता, जो दंभी है, जो दुर्वचन बोलता है, वह व्यक्ति कापोतलेश्या वाला होता है।
२६. विनीतोऽचपलोऽमायी, दान्तश्चावद्यभीरुकः।
प्रियधर्मा दृढधर्मा, तैजसीमाश्रितो भवेत्॥
जो विनीत है, जो चपलता-रहित है, जो सरल है, जो इंद्रियों का दमन करता है,
जो पापभीरु है, जिसे धर्म प्रिय है और जो धर्म में दृढ़ है, वह व्यक्ति तैजसलेश्या
वाला होता है।