अभय की साधना से आदमी सुखी बनता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अभय की साधना से आदमी सुखी बनता है : आचार्यश्री महाश्रमण

जोगणिया मंदिर, 26 नवंबर, 2021
जैन जगत के महान सूर्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के भीतर अनेक वृत्तियाँ होती हैं। उनमें एक हैभय की वृत्ति। जैन वाङ्मय में संज्ञाएँ बताई गई हैं। दस संज्ञाएँ भी आगम में प्राप्त होती हैं और चार संज्ञाएँ भी होती हैं। वे हैंआहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा। ये संज्ञा एक वृत्ति, एक भीतर का भाव होता है। मोहनीय कर्म का इतना बड़ा परिवार है, उसमें विभिन्‍न सदस्य हैं। गुस्सा, अहंकार, माया, लोभ, भय आदि कई सदस्य हैं। भय की वृत्ति के कारण आदमी डर जाता है। अनेक कारणों से आदमी डरता है। यह डरना एक दौर्बल्य है, कमजोरी है। आदमी डरता भी है और डराने का प्रयास भी कर लेता है। साधना की द‍ृष्टि से ये दोनों ही अच्छे नहीं हैं। डराना हिंसा का काम है। उत्तम बात यह है कि आदमी न तो स्वयं डरे न दूसरोें को डराए। यह अभय की साधना है। वह आदमी सुखी होता है। अनेक प्रकार के दानों में अभयदान श्रेष्ठ दान है। मैं किसी को न मारूँगा, मुझे छ: काय के जीवों को मारने का त्याग है। साधु के अहिंसा महाव्रत होता है, तो अभयदान भी उसके होता है। आदमी किसी बड़े आदमी से भी डर सकता है, यह एक प्रसंग से समझाया कि कभी बड़े आदमी भी अभयदान दे सकते हैं। सब प्राणी अभयदान चाहते हैं। मैं किसी प्राणी को शिकार से नहीं मारूँगा। अणुव्रत का भी नियम है कि मैं निरपराध प्राणी की संकल्पपूर्वक हत्या नहीं करूँगा।  यह अहिंसा धर्म है, इस अहिंसा धर्म की एक आत्मा अभय भी है। डरो मत, डराओ मत। तभी अभय का भाव पुष्ट हो सकता है। सबके साथ मैत्री भाव रखें। प्रेक्षाध्यान में भी अभय की अनुप्रेक्षा का प्रयोग है। भय लगे तो मंत्र का आलंबन ले सकते हैं। नमस्कार महामंत्र पवित्रतम मंत्र है। मंत्र में शब्द के साथ अर्थ का भी महत्त्व है। भाव का महत्त्व है। शब्द जड़ है, अर्थ उसकी आत्मा है, तभी उसके साथ श्रद्धा जुड़ती है। कई बार चित्र से भी मंंन में अच्छे भाव उसके अनुरूप आ सकते हैं। मंत्र से कर्मों की काली माया दूर हो ये बड़ी बात हो सकती है। ॐ भिक्षु के जाप से भी भीतर अभय का भाव जागृत हो सकता है। डरना तो मन की कमजोरी है, पर दूसरों को डराना तो छोड़ें। निरूकंपा के भाव से असातवेदनीय कर्म का बंध हो सकता है। हम अहिंसा की धारा में आगे बढ़ें, इसलिए हमारा अभय का भाव भी पुष्ट हो, यह अपेक्षित है। अहिंसा यात्रा हमारी चल रही है, इसके तीनों सूत्र अभय से जुड़े हुए हैं। हम अभय की दिशा में आगे बढ़ें, यह हमारे लिए श्रेयस्कर हो सकता है। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।