मानवता के मसीहा आचार्य श्री तुलसी

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साध्वी डॉ. सरलयशा

मानवता के मसीहा आचार्य श्री तुलसी

उत्सव के मानिंद जीवन के हर पल को उमंग और आनंद से जीने वाले मानवता के मसीहा थे आचार्य श्री तुलसी। उनका जीवन चरित्र आदर्श का उपनय बना। दीपावली की खुशियों को गुणित करने वाला त्योहार भैयादूज के दिन लाडनूं (राज.) के खटेड़ कुल में उनका जन्म हुआ। विकास की असीम संभावनाओं को अपने भीतर समेटकर पलने वाला बालक सबका चेहता बना। 'शुभस्य शीघ्र' की सूक्ति चरितार्थ की। मात्र ग्यारह वर्ष की अल्पायु में वीतराग पथ पर आगे बढ़ने का दृढ़ निश्चय कर मुनिजीवन अंगीकार किया। जीवन के आसियाने पर ताउम्र अनगिन कीर्तिमान गढ़े। प्रस्तुत है एक संक्षिप्त झलक –
गुरु के विश्वासपात्र
संयमजीवन में सर्वात्मना समर्पित होकर लक्ष्यभेदी साधना में जुट गए। विनम्रता, जागरूकता और सतत् अप्रमतता से मुनि तुलसी ने वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध संत मंडली के दिलों में स्थान बनाया। गुरु दृष्टि की अखंड आराधना करते हुए विकास पथ पर बढ़े। संन्यास के प्रथम दशक में स्वात्म-अर्हताओं को पुष्कल संयम साधना से प्रदीप्त किया। प्रबल पुण्योदय और प्रखर पुरुषार्थ से गुरु के विश्वस्त प्रिय शिष्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मात्र बाईस वर्ष की उम्र में तेरापंथ धर्मसंघ की यशस्वी परंपरा के आचार्य पद पर काबिज बने।
अद्भुत उड़ान
नेतृत्व की राहों पर गुरु के विश्वास को साबित किया। कुशल शिल्पकार की नाईं धर्मसंघ के एक-एक अंतरंग सदस्य में छिपी विराट संभावनाओं को झनझनाया। धर्मसंघ में विकास की नूतन रेखाएं खींचीं। अपने कालजयी कर्तृत्व से समाज, संघ और राष्ट्र को नया विजन दिया। वीतरागवाणी को आधुनिक संदर्भ में संपादन के महनीय कार्य को अंजाम दिया। भगवान महावीर के शाश्वत सिद्धांतों को सुगम शैली में प्रस्तुत कर समण श्रेणी के जरिए विश्वव्यापी बनाने की पहल की।
जागृति का सिंहनाद
हर वर्ग को अपनी पारदर्शी सोच से शुभ भविष्य की राह दिखाई। जन-जीवन में व्याप्त अंध-रूढ़ियों को अलविदा करने हेतु महाराणा प्रताप की वीरभूमि से नया मोड़ अभियान चलाया। नारी जाति के उद्धारक कहलाए। महिलावर्ग को अपनी अर्हताओं
को उजागर करने के लिए मंच दिया।
विकास की दिशा में गतिमान अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल उनके सत्प्रयासों की मिसाल है।
युवा शक्ति समाज की रीढ़ है। इस
वर्ग को उपेक्षित करना बड़ी भूल होगी। आचार्य तुलसी भविष्यद्रष्टा थे। उन्होंने युवकों को संगठन की एक पंक्ति में खड़ा किया। वर्तमान में तेयुप सेवा-संस्कार संगठन जैसे कार्यों को संपादित कर अपूर्व उड़ान भर रहा है।
नैतिक उत्थान में योगदान
किसी भी राष्ट्र के उत्थान में केवल भौतिक विकास ही पर्याप्त नहीं होता, नैतिक उत्थान की भी अहम भूमिका रहती है। भारत की आजादी के साथ आचार्य तुलसी ने ऋषि परंपरा के दायित्व का निर्वहन करते हुए ‘असली आजादी अपनाओ’ का सिंहनाद किया। भारतीय संस्कृति के अनुरूप छोटे-छोटे नियमों का पैकेज दिया, जो ‘अणुव्रत आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे नैतिकता, ईमानदारी, प्रामाणिकता, सद्भावना और भाईचारे की चेतना को बढ़ावा मिला। वर्तमान के माहौल में उच्छृंखल वृत्तियों पर नियंत्रण पाने में यह आंदोलन अंकुश की भूमिका अदा करता है।
यह लाइफ इंश्योरेंस की तरह जीवन को सुरक्षित बनाता है और मन को खुशहाली का सुकून देता है। इसकी गूंज खेत-खलिहानों में, गरीब की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंची। लाखों लोगों ने अणुव्रत के नियमों को अपनाकर अपने जीवन की दिशा और दशा बदली है। पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर भी यह आंदोलन प्रभावी है, जो इसकी उपयोगिता का साक्षी है।
फौलादी साहस
मानव उत्थान हेतु आचार्य तुलसी ने अनगिन अवदान दिए। शिक्षा के क्षेत्र में जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय का उद्भव उन्हीं के सत्प्रयासों की देन है। हर कार्य को करीने से संपादित करने की अनूठी महारत उनमें प्राणवान थी।
कार्यों को अंजाम देते समय यदा-कदा उनका घोर विरोध भी हुआ। मनचले लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाए, यहां तक कि उनके पुतले जलाए गए। पर उनका फौलादी मनोबल कभी मायूस नहीं हुआ। कड़ी से कड़ी कसौटी को भी उन्होंने समभाव से झेला। उनका स्लोगन था – 'जो हमारा हो विरोध, हम उसको समझें विनोद।' उनके बाबत निम्न पंक्तियां सटीक ठहरती हैं –
'नसीब जिनके ऊंचे और मस्त होते हैं,
इम्तिहान भी उनके जबरदस्त होते हैं।'
अस्तु, आचार्य श्री तुलसी ने अपने जीवन में अनगिन कीर्तिमान गढ़े। उसकी झलक इक्कीसवीं सदी के तेरापंथ के आरोहण-उत्कर्ष में देखी जा सकती है। उन्होंने 'तिण्णाणं तारियाणं' सूत्र को चरितार्थ किया।
राष्ट्र के नैतिक उत्थान और मानव मन की शांति को गहराने वाले विशिष्ट प्रयत्नों के प्रति कृतज्ञभाव से उन्हें ‘इंदिरा गांधी राष्ट्र एकता पुरस्कार’, ‘भारत ज्योति’, ‘युगप्रधान’ जैसे कई अलंकरणों से नवाजा गया। पर उपाधियों और अलंकरणों से उपर निस्पृह साधक के रूप में उन्होंने नई रेखाएं उकेरीं। एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने अपने आचार्य पद का भी विसर्जन कर दिया और गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की भूमिका में साक्षीभाव से रमण किया।
उनके विराट कर्तृत्व और व्यक्तित्व को शब्दों में मढ़ना कठिन है। फिर भी आशा है, महामना के एक सौ बारहवें (112वें) जन्मदिवस (अणुव्रत दिवस) की दिव्यता
का स्मरण जिज्ञासु के भीतर प्रेरणा प्रदीप का सुकून भरेगा।