गुरुवाणी/ केन्द्र
धर्माचरण बनेगा आत्मा की पूंजी : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, तीर्थंकर के प्रतिनिधि, महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी 12 कि.मी. का विहार कर प्रांतीज के आवर ऑन विद्याविहार में पधारे। पावन देशना प्रदान करते हुए उन्होंने फरमाया कि हमारे इस जगत में नित्यता भी है और अनित्यता भी है। आत्मा का अंख्येय प्रदेशात्मक रूप नित्य है, इसमें कोई अंतर नहीं आता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि द्रव्य पुद्गल हैं। ये द्रव्य हमेशा थे और रहेंगे। यह हमारी दुनिया की नित्यता है। साथ में अनित्यता भी है क्योंकि पर्याय परिवर्तन होता रहता है। एक जीव जो वर्तमान में मनुष्य है, वह कभी मनुष्य गति छोड़कर देवगति में जा सकता है। इसी प्रकार अभी जो जीव देवगति में है, वह देवगति को छोड़कर तिर्यंच अथवा मनुष्य गति में आ सकता है। व्यक्ति बालक से जवान और जवान से वृद्ध हो जाता है। इस प्रकार एक मनुष्य जीवन में भी पर्याय परिवर्तन हो सकता है। गांवों और नगरों में भी परिवर्तन हो जाता है। यह अनित्यता है।
व्यक्ति का जीवन और शरीर भी अनित्य है। आत्मा कभी मरती नहीं है, पर शरीर का विनाश हो जाता है। इसलिए व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि मैं इस अनित्य जीवन में नित्य आत्मा के कल्याण के लिए कुछ प्रयास करूं। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा कोई भी व्यक्ति हो, मृत्यु की पकड़ से कोई छूट नहीं सकता। छह खंड के आधिपति चक्रवर्ती का भी एक समय अवसान हो जाता है। तीर्थंकर भगवान की भी आत्मा कभी शरीर से मुक्त होकर मोक्ष में चली जाती है। इसलिए कहा गया है कि शरीर अध्रुव है, यह वैभव, धन-संपत्ति भी अशाश्वत है, और मृत्यु निकट से निकटतर आती जा रही है। ऐसी स्थिति में जितना धर्म इस मानव जीवन में कर सके, वह हमारी आत्मा के लिए बहुत बड़ी पूंजी हो जाता है। जीवन क्षणमंगुर है, पता नहीं कब आयुष्य पूर्ण हो जाए। इसलिए धर्म करना चाहिए।
जैन धर्म में सामायिक, पौषध, उपवास आदि हैं, और अहिंसा, नैतिकता, नशामुक्ति, सद्भावना आदि चीजें जीवन में रहें तो जीवन युक्तियुक्त बन सकता है, आत्मा निर्मल बन सकती है। और संन्यास का जीवन मिल जाए तो वह बहुत बड़ी बात है — रहें भीतर, जियें बाहर। आज प्रांतीज आना हुआ है। राजस्थान से गुजरात जाते समय भी यहां आना हुआ था और वापसी में भी आज प्रांतीज आना हुआ है। यहां ज्ञानशाला और सभी धार्मिक गतिविधियां अच्छी तरह चलती रहें। यहां के सभी वर्गों के लोगों में सद्भावना, नशामुक्ति, नैतिकता और धार्मिकता के संस्कार रहें। साधुत्व सबके जीवन में न भी आए, पर जीवन में अच्छे संस्कार रहें। जीवन में सादगी रहे और विचारों में उच्चता रहे — यही मानव जीवन का श्रृंगार है। ज्ञानशाला की प्रशिक्षिकाएं ज्ञानशाला के माध्यम से बालकों में ज्ञान और सद्संस्कारों का विकास बिना किसी पारिश्रमिक के कर रही हैं। ज्ञानदान के रूप में यह सेवा का बहुत बड़ा कार्य है।
परमपूज्य गुरुदेव के मंगल प्रवचन के उपरांत साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने अपना उद्बोधन देते हुए कहा कि आचार्यप्रवर लगभग एक वर्ष से गुजरात की धरती पर परिव्रजन कर नैतिकता, ईमानदारी और सद्भावना का संचार लोगों में कर रहे हैं। परमपूज्य गुरुदेव उपासनात्मक धर्म के पक्षधर हैं और इसके साथ-साथ आचरणात्मक धर्म पर भी बल देते हैं, और जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है वह व्यक्ति अपने जीवन में उपलब्धियां भी प्राप्त कर सकता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी के उद्बोधन के पश्चात बालक सम्यक ने अपनी बालसुलभ प्रस्तुति दी। दीपसिंह राठौड़ ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावाभिव्यक्ति दी। प्रांतीज ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। आचार्यप्रवर ने ज्ञानार्थियों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। गुजरात स्तरीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक-प्रशिक्षिकाओं ने गीत का संगान किया। विद्या विहार के ट्रस्टी रहिशभाई ने भी आचार्यप्रवर के स्वागत में अपनी अभिव्यक्ति दी। स्थानीय विधायक गजेन्द्र सिंह ने भी आचार्यश्री के स्वागत में भावनाओं की अभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।