गुरुवाणी/ केन्द्र
ज्ञान और श्रद्धा से हो चारित्र और तप का विकास : आचार्यश्री महाश्रमण
महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना सहित लगभग 14 कि.मी. का विहार कर ताजपुर — स्वामीनारायण इंस्टिट्यूट ऑफ नर्सिंग पहुंचे। अमृत देशना प्रदान करते हुए पूज्य प्रवर ने फरमाया कि चार शब्द हैं — ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। ज्ञान से व्यक्ति पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से कर्म के आगमन को रोकता है और तपस्या से आत्मा का शोधन करता है। ज्ञान एक पवित्र तत्व है। हमारी चेतना में अनंत ज्ञान स्वाभाविक रूप में है, परंतु वह सारा ज्ञान अभी प्रकट नहीं है। सामान्य व्यक्ति का थोड़ा ज्ञान प्रकट होता है, बाकी ज्ञान आवृत रहता है।
ज्ञान अध्यात्म विद्या और लौकिक विद्या — दोनों का ही होता है। आज कितने स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय व अन्य कई विद्या के उपक्रम विश्व में संचालित हैं, और वहां कितने विद्यार्थी पढ़ते हैं, कितने शिक्षक पढ़ाते हैं और कितने लोग प्रबंधन संभालते हैं, तथा ज्ञान का आदान-प्रदान भी होता है। भूगोल, खगोल, विज्ञान, गणित, विभिन्न भाषाएं आदि लौकिक विद्याओं का ज्ञान होता है। इस ज्ञान का भी अपना महत्व है। इसके साथ-साथ विद्यार्थियों को यदा-कदा अध्यात्म विद्या का भी ज्ञान प्रदान करने का प्रयास होना चाहिए, ताकि ईमानदारी, अहिंसा आदि अच्छे तत्वों का संस्कार विद्यार्थियों में उभर सके। इसके साथ ही योग और ध्यान के प्रयोग भी करवाए जाएं तो संभव है विद्यार्थियों में चारित्रिक विकास भी हो सकेगा। भूगोल, खगोल आदि का ज्ञान एक पक्षीय है, साथ में संस्कारों का ज्ञान भी होना चाहिए। शिक्षा संस्कारयुक्त शिक्षा होनी चाहिए। लौकिक शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। जो संस्थान धार्मिक उपक्रमों से जुड़े हुए हैं, वहां तो आशा की जा सकती है कि अच्छे संस्कारों की शिक्षा भी दी जाती होगी। अध्यात्म विद्या का अच्छा ज्ञान हो जाए तो बच्चों में अच्छे संस्कारों का भी विकास हो सकता है। आचार्यश्री ने कहा कि आज यहां आना हुआ है और बाबाजी से भी मिलना हो गया है। संतों के पास संतों का आना और सत्संग का होना बड़ा ही सुखदायक होता है। स्वामीनारायण संप्रदाय के संत प्रेमस्वरूप स्वामी ने भी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दी।