धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

आचार्यवर ने टिप्पणी करते हुए संतों से कहा- ऐसा उपालम्भ हर कोई सहन नहीं कर सकता है।

प्रवचन का प्रभाव
टाडगढ़ से विहार कर आचार्यवर बरार की ओर आगे बढ़ रहे थे। सड़क पर एक भाई ने आकर वन्दना की। आचार्यवर के पैर थमे। भाई ने अपना परिचय देते हुए कहा-आचार्यजी! आप इकतीस वर्ष पहले यहां पधारे थे। तब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था। मैंने आपका प्रवचन सुना और इतना प्रभावित हुआ कि मेरे जीवन की दिशा ही बदल गई। तब से अब तक मैंने शराब, मांस को छुआ तक नहीं। धूम्रपान भी कभी नहीं किया। मैं ही नहीं, मेरा परिवार भी व्यसन-मुक्त है। मेरे हृदय पर आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप है। मैंने आज आपके लिए पूरी तैयारी की है। आपको मेरी कुटिया में पधारना होगा। आचार्यश्री उसके घर पर पधारे। उसने दूध लेने के लिए आग्रह किया। आचार्यवर ने इन्कार करते हुए कहा- रास्ते में हम दूध नहीं लेते, फिर यह दूध हमारे लिए तैयार किया हुआ है। अतः हमारे लिए अग्राह्य है। तुमने अपने जीवन को बदला, परिवार को सुसंस्कारित बनाया, यह सबके लिए अनुकरणीय है। तुम्हारी भक्तिपूर्ण भावना स्तुत्य है।

शिकारियों को आध्यात्मिक शिकार
परमाराध्य आचार्य प्रवर टाडगढ़ में विराज रहे थे। होली पर्व का अवसर था। रावल जाति के लोग आपस में मिले और कुछ देर बाद वे आचार्यं प्रवर के दर्शनार्थ सभाभवन में उपस्थित हुए। दर्शन करने के बाद उन्होंने आचार्यप्रवर से उपदेश देने के लिए प्रार्थना को। आचार्यश्री ने दस-पन्द्रह मिनट तक उद्बोधन दिया। उपदेश से प्रभावित होकर उन लोगों में से किसी ने शराब, किसी ने अफीम और किसी ने सिगरेट पीने का प्रत्याख्यान कर दिया।
उन लोगों में से एक ने 'हेडा' में जाने का त्याग करना चाहा। आचार्यवर ने पूछा-यह हैडा क्या होती है? लोगों ने बताया कि हैडा शिकार को कहते हैं। आचार्यवर ने शब्द के मूल को पकड़ते हुए फरमाया- आखेटक-आहेडक-आहेडा और उसी का 'हेडा' बना है।
आचार्यवर (लोगों से) होली पर शिकार करते हो?
लोग-परंपरा तो है।
आचार्यवर-शिकार हिंसा है, क्रूरता का प्रतीक है, ऐसी तुच्छ परंपरा को तोड़ सको तो तोड़ दो।
उपस्थित सभी लोगों ने खड़े होकर हैडा (शिकार) करने का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया।

सच्ची भेंट
२३ मार्च १९८५ को परमाराध्य आचार्य प्रवर ज्ञानगढ़ से विहार कर चिताम्बा पधार रहे थे। लोगों के निवेदन पर आचार्यवर ने पगडण्डी का रास्ता ले लिया। ऊबड़-खाबड़ पथरीली व कंटीली पगडण्डी पर आचार्यवर अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर हो रहे थे। छोटे से ग्राम झीणा के ठाकुर विजय सिंहजी द्रुतगति से चलकर आचार्यवर के समीप आए। वे गुरुदेव के उपहारार्थ अपने साथ दूध, शक्कर, गुड़ लाए थे। गुरुदेव ने पैर थमाए और उनको अपनी भिक्षा-विधि बतलाते हुए कहा- ये सब चीजें तो नहीं, कुछ और दो।
ठाकुर साहब-क्या दूं? मांस खाता नहीं। मदिरा पीता नहीं।
आचार्यश्री-बीड़ी पीते होंगे?
ठाकुर साहब-पीता हूं।
आचार्यश्री-क्या उसे छोड़ सकते हैं?
सहयात्री जन-बहुत मुश्किल है।
ठाकुर साहब मुश्किल क्या है? आपका हुक्म होगा तो छोड़ दूंगा।
आचार्यश्री-छोड़ दो।
ठाकुर साहब यह छोड़ी। उन्होंने बीड़ी पीने का त्याग कर दिया।
साथ में चलने वाले यात्री देखते ही रह गए।