स्वाध्याय
श्रमण महावीर
'जिसमें इन्द्रिय और मन का संयम, अहिंसा का आचरण और देह का विसर्जन होता है वह
श्रेष्ठ यज्ञ है।'
'क्या आप भी यज्ञ करते हैं?'
'प्रतिदिन करता हूं।'
मुनि की बात सुन रुद्रदेव विस्मय में पड़ गया। उसे इसकी कल्पना नहीं थी। उसने आश्चर्य के साथ पूछा- 'मुने ! तुम्हारी ज्योति कौन-सी है? ज्योतिस्थान कौन-सा है? घी डालने की करछिया कौन-सी हैं? अग्नि को चलाने के कंड़े कौन-से हैं? ईधन और शान्ति-पाठ कौन-से हैं और किस होम से तुम ज्योति को हुत करते हो?'
इसके उत्तर में मुनि हरिकेश ने अहिंसक यज्ञ की व्याख्या की। वह व्याख्या महावीर से उन्हें प्राप्त थी।
मुनि ने कहा-'रुद्रदेव! मेरे यज्ञ में तप ज्योति है, चैतन्य ज्योति-स्थान है। मन, वाणी और काया की सत्यवृत्ति घी डालने की करछिया हैं। शरीर अग्नि जलाने के कंड़े हैं। कर्म ईन्धन है। संयम शान्तिपाठ है। इस प्रकार मैं अहिंसक यज्ञ करता हूं।'
इस संवाद में यज्ञ का प्रतिवाद नहीं किन्तु रूपान्तरण है। इस रूपान्तरण से पशु-बलि का आधार हिल गया। महावीर के शिष्य बड़े मार्मिक ढंग से उसका प्रतिवाद करने में लग गए।
एक बकरा बलि के लिए ले जाया जा रहा था। मुनि ने उसे देखा। वे उसके सामने जाकर खड़े हो गए। बकरा जैसे ही निकट आया, वैसे ही मुनि नीचे झुके और अपने कान बकरे के मुंह के पास कर दिए। देखते-देखते लोग एकत्र हो गए। कुछ देर बाद मुनि अपनी मूल मुद्रा में खड़े हुए। लोगों ने पूछा- 'महाराज ! आप क्या कर रहे थे?'
मुनि बोले- 'बकरे से कुछ बातें कर रहा था।' 'हम आपका वार्तालाप सुनना चाहते हैं-लोगों ने कहा।'
मुनि बोले- 'मैंने बकरे से पूछा-मौत के मुंह में जाने से पहले तुम कुछ कहना चाहते हो?' उसने कहा- 'यदि मेरी बात जनता के कानों तक पहुंचे तो मैं अवश्य कहना चाहूंगा।' मैंने उसकी भावना को पूरा करने का आश्वासन दिया। तब उसने कहा-'मेरी बलि इसलिए हो रही है कि मैं स्वर्ग चला जाऊं। तुम इस 'होता' से कहो कि मुझे स्वर्ग में जाने की आकांक्षा नहीं है। मैं घास-फूस खाकर इस धरती पर संतुष्ट हूं, फिर यह मुझे क्यों असंतोष की ओर ढकेलना चाहता है? यदि यह मुझे स्वर्ग में भेजना चाहता है तो अपने प्रियजनों को क्यों नहीं भेजता? उनकी बलि क्यों नहीं चढ़ाता?' यह कहकर बकरा मौन हो गया। उपस्थित जनों! उसका आत्म-निवेदन मैंने आप लोगों तक पहुंचा दिया।
मुनि स्वयं मौन हो गए। उनका स्वर महावीर की दिशा से आने वाले हजारों-हजारों स्वरों के साथ मिलकर इतना मुखर हो गया कि युग-युग तक उसकी गूंज कानों से टकराती रही। बलि की वेदी अहिंसा की छत्रछाया में अपने अस्तित्व की लिपि पढ़ने लगी।
9. युद्ध और अनाक्रमण
यह आकाश एक और अखण्ड है, फिर भी अनादिकाल से मनुष्य घर बनाता आ रहा है और उसकी अखण्डता को खंडित कर सुविधा का अनुभव करता चला आ रहा है। इस विखंडन का प्रयोजन सुविधा है। अखण्ड आकाश में मनुष्य उस सुविधा का अनुभव नहीं करता जिसका विखंडित आकाश में करता है। मनुष्य जाति की एकता में मनुष्य को अहंतृप्ति का वह अनुभव नहीं होता जो उसकी अनेकता में होता है। अहंवादी मनुष्य अपने अहं की तृप्ति के लिए मनुष्य जगत् को अनेक टुकड़ों में बांटता रहा है।
इस विभाजन का एक रूप राष्ट्र है। एक संविधान और एक शासन के अधीन रहने वाला भूखण्ड एक राष्ट्र बन जाता है। दूसरे राष्ट्र से उसकी सीमा अलग हो जाती है। वह सीमा-रेखा भूखण्ड को विभक्त करने के साथ मनुष्य-जाति को भी विभक्त कर देती है। वह विभाजन विरोधी हितों की कल्पना को उभार कर युद्ध को जन्म देता है, मनुष्य को मनुष्य से लड़ने के लिए प्रेरित करता है।
भगवान् महावीर ने युद्ध का इस आधार पर विरोध किया कि मानवीय हित परस्पर विरोधी नहीं हैं। उनमें सामंजस्य है और पूर्ण सामंजस्य। अहं और आकांक्षा ने विरोधी हितों की सृष्टि की है। पर वह वास्तविक नहीं है। उस समय की राजनीति में युद्ध को बहुत प्रोत्साहन मिल रहा था। उसकी प्रशस्तियां गाई जाती थीं।