संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

मेघ ने जो कुछ कहा है, वह यही स्वर है। महावीर ने कह दिया मुझे भी मत पकड़ना। मेरे साथ भी स्नेह मत करना, अन्यथा यात्रा बीच में रह जाएगी। बस, पकड़ना है केवल अपने को। मेघ ने महावीर को बीच से हटा दिया। वह अकेला, अनवरत साधना-पथ पर बढ़ता रहा। साधना सिद्ध हुई और महावीर सामने खड़े हो गए। अब मेघ और महावीर के बीच द्वैत नहीं रहा। कृतज्ञता के स्वरों में मेघ की आत्मा नर्तन करने लगी। साधक सहजोबाई ने कहा है-भगवान् को छोड़ सकती हूं पर गुरु को नहीं। भगवान् ने कांटे ही कांटे बिछाए और गुरु ने सबको दूर हटा दिया। उसने बड़े मीठे, सरस और उपालंभभरे पद कहे हैं-
राम तजू पे गुरु न बिसारूं, गुरु को सम हरि को न निहारूं । 
हरि ने जनम दिया जग मांही, गुरु ने आवागमन छुड़ाहि। 
हरि ने पांच चोर दिए साथा, गुरु ने लाई छुड़ाया अनाथा ।। 
हरि ने कुटुम्ब जालन में गेरी, गुरु ने काटी ममता वेरी। 
हरि ने रोग भोग उरझायो, गुरु जोगी कर सर्व छुड़ायो। 
हरि ने मोसूं आप छिपायो, गुरु दीपक देताहि दिखायो। 
फिर हरि बंधि मुक्ति गति लाये, गुरु ने सबही भर्म मिटाये ॥ 
चरण दास पर तन मन बारूं, गुरु न तजूं हरि को तज डारूं ॥
 
संबोधि ग्रंथ की फलश्रुति
४८. निर्ग्रन्थानामधिपतेः, प्रवचनमिदं महत्।
     प्रतिबोधश्च मेघस्य, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः॥
४९. निर्मला जायते दृष्टिः, मार्गः स्याद् दृष्टिमागतः। 
     मोहश्च विलयं गच्छेत्, मुक्तिस्तस्य प्रजायते॥
(युग्मम्)
निग्रंथों के अधिपति भगवान् महावीर के इस महान् प्रवचन को और मेघकुमार के प्रतिबोध को जो सुनता है, श्रद्धा रखता है, उसकी दृष्टि निर्मल होती है, उसे सम्यग्-पथ की प्राप्ति होती है, मोह के बंधन टूट जाते हैं और वह मुक्त बन जाता है।
मेघ के माध्यम से 'संबोधि' का जन्म हुआ। मेघ ने महावीर से सुना, समझा और श्रद्धा-पूर्वक उसका अनुशीलन किया।
मेघ मुक्त हो गया। और भी जो इसे सुनेंगे, समझेंगे और आचरण करेंगे वे भी मुक्त होंगे। हम सबके अंतस्तल में सच्ची प्यास प्रकट हो और हम महावीर के पवित्र चरणों में अपने आपको सहज भाव से समर्पित कर उस परम सत्य का रसास्वादन करें।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मनःप्रसादनामा षोडशोऽध्यायः ।