गुरुवाणी/ केन्द्र
अहिंसा, संयम और तप ही है धर्म : आचार्यश्री महाश्रमण
धर्म गंगा प्रवाहित करने हुए महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी 'जागरण जनसेवा मण्डल' द्वारा संचालित ‘आचार्य महाप्रज्ञ नेत्र चिकित्सालय’ तथा ‘गोविंद गुरु विद्या निकेतन’ परिसर में पधारे। आर्हत् वांग्मय के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए पूज्यश्री ने फरमाया कि धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया गया है। धर्म क्या है? अहिंसा धर्म है, संयम धर्म है और तप धर्म है। जिस व्यक्ति के जीवन में अहिंसा है, संयम समाहित है और तप से जीवन तपा हुआ है, तो समझना चाहिए कि उसके जीवन में धर्म है, मंगल उसके पास है।
एक पदार्थ का जगत है और दूसरा आत्मा का जगत है। व्यक्ति की दृष्टि अध्यात्म के प्रति सजग हो जाए, स्पष्ट हो जाए कि आत्मा का कल्याण करने का मार्ग अहिंसा, संयम, तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। दृष्टि सम्यक् हो जाए — यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति कितना आचरण कर सके, यह बाद की बात है; पहले सही को सही मान लेना, सही मार्ग को पहचान लेना आवश्यक है। मार्ग दिख जाए या मार्गदर्शक मिल जाए, तो आगे चलना व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ है। यदि देखने की दृष्टि है, तो व्यक्ति मार्ग को देख सकेगा। धर्म के संदर्भ में सम्यक् दृष्टि मिल जाना सबसे महत्त्वपूर्ण है। जैन वाङ्मय में सम्यक्त्व को बहुत महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति का सम्यक्त्व दृढ़ रहे, निर्मल रहे, धर्म के प्रति गहरी आस्था रहे, कठिनाई आने पर भी वह धर्म को न छोड़े। देव, गुरु, धर्म के प्रति आस्था हो जाए, नव तत्त्वों का बोध हो जाए और भीतर के कषाय पतले पड़ जाएँ, अनन्तानुबंधी कषाय न रहें, दर्शन-मोहनीय का उदय न रहे—तो समझना चाहिए कि दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट हो गई है।
तीर्थंकरों को ‘चक्खुदयाणं’ कहा गया है, अर्थात् वे अध्यात्म का नेत्र प्रदान करने वाले होते हैं। वह व्यक्ति श्रेष्ठ है जिसका विवेक-चक्षु जागृत हो जाए या भीतर की प्रज्ञा उदित हो जाए। यदि स्वयं में विवेक नहीं है, तो ज्ञानी पुरुषों द्वारा बताए मार्ग पर चलना भी उतना ही अच्छा और फलदायी है।
आचार्यश्री ने कहा कि आज वागदरी स्थित आचार्य महाप्रज्ञ नेत्र चिकित्सालय में आने का अवसर हुआ है। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी भी कभी इस क्षेत्र में पधारे थे और आज हमारा भी यहां आना हो गया है। यह चिकित्सालय आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नाम से स्थापित है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जीवन के ग्यारहवें वर्ष में संत बन गए थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत विराट था। आगम-संपादन के कार्य को आगे बढ़ाने में उनका योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रेक्षाध्यान पद्धति का विकास, जीवन-विज्ञान का विकास उनके द्वारा संपन्न हुआ। उनका साहित्य अत्यंत व्यापक है, जो केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पढ़ा जा रहा है। यहां धार्मिक–आध्यात्मिक वातावरण बना रहे। यहां आने वाले मरीजों के बाहरी नेत्र तो सुधरें ही, साथ ही भीतर की धर्म-दृष्टि भी उद्घाटित हो जाए तो जीवन का कल्याण संभव है।
आज चतुर्दशी के संदर्भ में आचार्यश्री ने हाजरी के क्रम को संपादित किया। चारित्रात्माओं ने अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। आचार्यश्री ने बच्चों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि ज्ञान के साथ सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की भावना का भी विकास होना चाहिए। आचार्यश्री की प्रेरणा से बच्चों ने विभिन्न संकल्प स्वीकार किए। संस्थान के अध्यक्ष डॉ. दलजीत यादव ने नव-निर्मित छात्रावास का नाम ‘महाश्रमण निलय’ रखने की घोषणा की। आचार्यश्री के स्वागत में जागरण जन सेवा मंडल के अध्यक्ष डॉ. दलजीत यादव, संस्थापक मूलचंद लोढ़ा, विमल चौरड़िया और भीखमचंद नखत ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।