स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
फतेहपुर-निवासी दानवीर श्री सोहनलालजी दूगड़ जो कि आचार्य प्रवर के विरोध में भाग लिया करते थे, बाबू जयप्रकाश नारायण के पास गये और आचार्यवर के बारे में आक्षेपात्मक आलोचना करते हुए बोले- 'आचार्य तुलसी लड़कियों को अपने साथ रखते हैं। बाबूजी बोले-'इसमें क्या खास बात है? गांधीजी भी अपने साथ लड़कियों को रखते थे। वे लड़कियों का सहारा लेकर चलते थे। पहुंचे हुए व्यक्ति के लिए लड़की और लड़के में कोई फर्क नहीं होता।'
प्रतिक्रिया
चाखेड़-६-६-८५
परमाराध्य आचार्य प्रवर ने अपने मुनि जीवन का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा-'पूज्य गुरुदेव कालूगणी की मेरे पर अत्यन्त कृपा थी। दिन-प्रतिदिन उनकी कृपा बढ़ती ही गई। जितना मैं था उससे भी अधिक वे मेरा अंकन करते थे। वि. सं. १९९२ के उदयपुर चतुर्मास की बात है- गुरुदेव ने मेरे पर समुच्चय के कार्य लागू कर दिये। गुरुदेव का यह अप्रत्याशित निर्णय न केवल साधु-साध्वी-समाज में अपितु श्रावक- समाज में भी चर्चा का विषय बन गया। साधु-साध्वियों एवं श्रावकों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई।'
इस प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर मैं गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुआ और बद्धांजलि होकर बोला- गुरुदेव! आपने मेरे पर समुच्चय के कार्य लागू किये हैं, इसे लेकर साधु-साध्वियों एवं श्रावकों में तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है।
गुरुदेव मुस्कराए और वात्सल्य विकीर्ण करते हुए मेरे कान को पकड़ा। बस इतने से मुझे समाधान मिल गया। मैंने जान लिया कि गुरुदेव की कृपादृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। फिर मैंने परवाह नहीं की कि लोगों में क्या प्रतिक्रिया हो रही है।
ज्ञान की गहनता
चाखेड़-६-६-८४
आचार्यवर ने साधु-साध्वियों से पूछा-मुनि को खुले मुंह न बोलना-क्या इसका कोई आगमिक आधार है? साधु-साध्वियों के पास इसका कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं था।
अन्त में आचार्यवर ने अपने जीवन का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा-वि. सं १९९४ का हमारा चतुर्मास बीकानेर में था। वहां अगरचन्दजी नाहटा आदि कुछ व्यक्ति मेरे पास आए और बोले- क्या आपके पास खुले मुंह न बोलने का कोई आगमिक आधार है? मैंने कहा-खुले मुंह न बोलने का आधार भगवती सूत्र के सोलहवें शतक का दूसरा उद्देशक है, जिसमें कहा गया है कि इन्द्र का खुले मुंह बोलना सावद्य है।
सूर्योदय का आभास
चाखेड़-६-६-८५
परमाराध्य आचार्य प्रवर एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ विराजमान थे। कुछ साधु-साध्वियां, समणियां श्रीचरणों की उपासना में बैठी हुई थी। आचार्यवर एवं युवाचार्यश्री अतीत का साक्षात्कार कर रहे थे। उसी सिलसिले में श्रद्धेय युवाचार्यश्री ने फरमाया 'आचार्यवर जब मुनि अवस्था में थे, तभी साधु-साध्वियों में यह धारणा बन चुकी थी कि मुनि तुलसीरामजी ही भावी आचार्य हैं।
मुझे याद है-जब मैं वैरागी था, कालूगणी के दर्शन करने गंगाशहर गया। उस समय टमकोर में मुनि छबीलजी स्वामी विराज रहे थे। उन्होंने मुझे कहा - देख! तुम गुरुदेव के दर्शन करने जा रहे हो, एक बात का ध्यान रखना, वहां मुनि तुलसीरामजी हैं, उनके दर्शन अवश्य करना। वे कालूगणी के बाद आचार्य बनने वाले हैं।'
आचार्यवर तुलसी उस समय एक सामान्य मुनि थे। फिर भी तत्कालीन लब्धप्रतिष्ठ संत आपको बहुत ही आदर व सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
गंवार की पहचान
सांकड़ा-२१-६-१९८५
परमाराध्य आचार्य प्रवर विराजमान थे। कुछ साध्वियां गुरुदेव की उपासना में बैठी हुई थीं। एक ग्रामीण भाई आया और उसने साध्वियों को चीर कर आगे बढ़ने की कोशिश की। आचार्यवर ने उसे आगे बढ़ने से रोका। ग्रामीण लौट गया। आचार्यवर ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा- इन लक्षणों से व्यक्ति गंवार कहलाता है। आगे जाने के लिए रास्ता नहीं था, फिर भी इस व्यक्ति ने आगे बढ़ने का प्रयास किया।