एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

(क्रमश:)
(78) चित्रक्रिया प्रकृत्याद्या:, कर्तार: प्रचुरा भुवि।
मानवीयचरित्रस्य, चित्रणमतिदुर्लभम्॥
इस धरती पर प्रकृति आदि का चित्रण करने वाले तो बहुत हैं, किंतु मानवीय चरित्र का चित्रण अति दुर्लभ है।

(79) ज्ञातं मया च संपठ्य, तेरापंथप्रबोधकम्।
भवति कं रहस्यं यत्, पारावारस्य गर्गरे॥
तेरापंथ-प्रबोध को पढ़कर मैंने जाना कि गागर में सागर का क्या रहस्य है?

(80) जैनदर्शनसंस्कारतत्वादि विषयस्य च।
त्वया श्रावकसंबोधे, सुष्ठु विवेचनं कृतम्॥
आपने श्रावक-संबोध में जैन दर्शन, संस्कार, तत्त्व आदि विषय का सुंदर विवेचन किया है।

(81) साहित्यस्यैव नासीस्त्वं, साहित्यकारसर्जक:।
अघटय: कियन्तो ज्ञान्, किं तव विषये ब्रुवे॥
आप साहित्य ही नहीं, साहित्यकारों के भी सृजक थे। आपने कितनों को विद्वान् बनाया, गुरुदेव! मैं आपके विषय में क्या कहूँ।

ऐतिहासिक-वर्णन
(82) भवता दीक्षिता: प×चाशतधिकं शतद्वयम्।
आत्मोद्धाराय प्रायश्‍च, धर्मपथे सुसाधव:॥
धर्मपथ पर, आत्मोद्धार हेतु लगभग 250 आयु आप द्वारा दीक्षित हुए।

(83) सुसाध्व्य: षट्शती प्राय:, संयमे दीक्षितास्त्वया।
वर्धन्तां सकले क्षेत्रे, तव कृपाप्रसादत:॥
लगभग 600 साध्वियाँ आप द्वारा संयम-पथ पर दीक्षित हुई। आपके कृपाप्रसाद से वे हर क्षेत्र में विकास करे।

(84) चन्देरीलाडनूंग्रामे, द्वितीये शुक्लकार्तिके।
श्‍वोवसीयसवेलायामुद्भवो भवतोऽभवत्॥
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन शुभ बेला में चन्देरी लाडनूं ग्राम में आपका जन्म हुआ।

(85) दीक्षापि लाडनूंग्रामे, प×चम्यां पौषकृष्णके।
अष्टमाचार्यकालोश्‍चय, कराभ्यां दीक्षितो भवान्॥
आपकी दीक्षा भी लाडनूं में हुई। पौष कृष्णा प×चमी के दिन, अष्टमाचार्य कालूगणी के करकमलों द्वारा आप दीक्षित हुए।

(86) द्वाविंशतेर्हि वर्षस्यावस्थायामेव यौवने।
कालुना भवते दत्तं, युवाचार्यस्य सम्पदम्।
22 वर्ष की यौवन अवस्था में कालुगणी ने आपको युवाचार्य का दायित्व सौंपा।

(87) युवाचार्योऽभवन्मात्रचतुर्रात्र्यै भवान् गुरो!
आचार्यपद आरूढो, नवम्यां भाद्रशुक्लके॥
गुरो! आप मात्र 4 रात्रियों के लिए युवाचार्य रहे। भाद्र शुक्ला नवमी के दिन आप आचार्य पद पर आरूढ़ हुए।

(88) नश्‍वरं संचरं त्यक्त्वा, गङ्गाशहरपत्तने।
अभेदं प्रति चाक्राम्यद्विशुद्धनिश्‍चये पथे॥
आपने गंगाशहर में इस नश्‍वर देह का त्याग कर अभेद एवं विशुद्ध निश्‍चय पथ पर चरण बढ़ाए।

(89) कदापि भवत: कर्त्तुं, न दर्शनमशक्नवम्।
मात्रैतस्याश्‍च वार्ताया, यद् करोम्यनुशोचनम्॥
मुझे मात्र एक बात का अफसोस है कि मैं कभी आपके दर्शन नहीं कर सका।
(शेष अगले अंक में)