साध्वी चंद्रिकाश्री जी के प्रति आध्यात्मिक उद्गार
तू तपी-खपी मेरे खातिर
साध्वी काम्यप्रभा
जीवन का रथ गतिमान तभी, जब सुगुरु सारथी मिलते हैं।
उपवन के पौधे गणमाली से, सिंचन पाकर खिलते हैं॥
श्री महाप्रज्ञ करकमलों से, संयमश्री का उपहार मिला।
आशीर्वर ओज आहार मिला, अंतर का अनुपम दीप जला॥
पाया तूने सौभाग्य प्रबल, गुरुकुल स्वर्णिम संयोग मिला।
श्रम की स्याही से लिखा हुआ, हर पन्ना-पन्ना रंगीला॥
निर्झर के पावन जल जैसा, देखा है तेरा निर्मल मन।
करुणा का भाव छलकता था, उजला जीया संयम जीवन॥
माधुर्य कंठ में तान मधुर, रचना होती थी अलेबली।
रुचि तत्त्वज्ञान की गहरी थी, समझाने की सुंदर शैली।
मुश्किल घड़ियों में मजबूती, आलस से रहती दूर सदा।
मुस्काती मोहक छवि तेरी, हरपल हरक्षण लगती सुखदा॥
गुरु की उपासना के वे क्षण, बरसाते थे करुणा की धार।
शब्दों से कैसे बयाँ करूँ, बौना है शब्दों का संसार॥
तेरे सह जीने के वे पल, मैं कभी न विस्मृत कर पाऊँ।
तू तपी-खपी मेरे खातिर, उपकृत न उससे हो पाऊँ॥