साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(41)

आज तक माँगा नहीं तुमसे कभी कुछ
माँगने की बात अब मन में समाई
अगर देना हो परम वह तत्त्व दे दो
पा जिसे हर चाह मेरी हो पराई॥

आंज दो आलोक आँखों में अगर तुम
चाह दीपक की नहीं उर में जगेगी
हौसला तम का स्वयं ही पस्त होगा
ज्योति से इस चित्त की जब लौ लगेगी
छल न पाएगी कभी छलना किसी की
सत्य से पहचान तुमने ही कराई॥

भीरुता से मित्रता करती नहीं मैं
पर कठिन हर राह में वह साथ होती
देखती हूँ नि।त नए सपने सलोने
पर उजाले में अचानक रात होती
क्या सहारा बन सकूँगी दूसरों का
प्रीत खुद से भी नहीं मैंने निभाई॥

किला आस्था का रचो मजबूत इतना
तीर संशय के न उसको तोड़ पाए
दो समर्पण का कवच दुर्भेद्य ऐसा
जय-पराजय की न फिर चिंता सताए
एक गहरी प्यास ही तुम मुझे दे दो
नीर से मैंने न अब तक तृप्ति पाई॥

बिना पुकारे ही रहे वत्सल सदा तुम
भूल पाऊँगी कभी उपकार तेरा?
जिंदगी पाषाण-सी कोरी पड़ी थी
चित्र सतरंगा वहाँ तुमने उकेरा
है हिमालय शिखर-सा संकल्प उन्‍नत
शांति की धारा विमल तुमने बहाई॥

(42)

पंख लगा सपनों के तुमने मनचाही हर मंजिल पाई।
हर मंजिल पर खड़ा सामने नया स्वप्न लेकर अंगड़ाई॥

सघन कुहासा कभी न पथ में डिगा सका विश्‍वास तुम्हारा
संघर्षों से बतियाने में नहीं कभी भी पौरुष हारा
सूने गलियारों में तुमने मुसकानों की हाट लगाई॥

थम जाती है हवा जहाँ पर तुम आँधी को वहाँ बुलाते
हो ठहराव कहीं कितना ही तुम बहाव की बात सुनाते
पतझर के मौसम में तुमने नव गीतों की फसल उगाई॥

चौराहे पर भटक गया मन बिना पते का खत हो जैसे
किया नियोजित सहसा उसको साँसों की सरगम पर कैसे
स्याह हुई जब राह मनुज की तुमने उजली ज्योति जलाई॥

ऐसी किरण बिछाओ मग में मन का अंधियारा धुल जाए
उष्मा सहज मिले प्राणों को नयन तीसरा झट खुल जाए
आज सलोनी सुबह दे रही नए छंद रच तुम्हें बधाई॥

(क्रमश:)