उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य आर्यरक्षित

(क्रमश:) दूरदर्शी आर्यरक्षित ने समग्रता से चिंतन कर पठन-पाठन की जटिल व्यवस्था को सरल बनाने हेतु आगम-अध्ययन-क्रम को चार अनुयोगों में विभक्‍त किया। इस महत्त्वपूर्ण आगम-वाचना का कार्य द्वादशवर्षीय दुष्काल की परिसमाप्ति के बाद दशपुर में वीर निर्वाण 592 (वि0पू0 122) के आस-पास संपन्‍न हुआ।
आर्यरक्षित के पास योग-साधक-शिष्यों की प्रभावक मंडली थी। तीन पुष्यमित्र उनके शिष्य थे। दुर्बलिका पुष्यमित्र, घृत पुष्यमित्र एवं वस्त्र पुष्यमित्र। तीनों शिष्य लब्धि-संपन्‍न शिष्य थे एवं आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ध्यानयोग के विशिष्ट साधक भी थे। आर्यरक्षित का प्रमुख विहार-क्षेत्र अवंती, मथुरा एवं दशपुर (मंदसौर) के आसपास का क्षेत्र था। उनके जीवन की विशेष घटनाएँ इन्हीं नगरों से संबंधित हैं। आर्यरक्षित विविध क्षमताओं से संपन्‍न थे। वे आगम-ज्ञान के अक्षय कोष थे। आगम-वाचना के लिए अनुयोग व्यवस्था की स्थापना आर्यरक्षित की जैन समाज को विशिष्ट देन है। आवश्यक निर्युक्‍ति में आर्यरक्षित को देवेंद्र पूजित एवं अनुयोग-व्यवस्थापक बताया गया है। समय-संकेत आर्यरक्षित बाईस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। उनका सामान्य मुनि जीवन चालीस वर्ष का था। संयमी जीवन में कुल तिरपन वर्ष के काल में तेरह वर्ष तक उन्होंने युगप्रधानाचार्य पद का सम्यक् वहन किया। वे पचहत्तर वर्ष की उम्र को पार कर वी0नि0 597 (वि0 127, सन् 70) में स्वर्गगामी बने।

आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र

आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र अनुयोग-व्यवस्थापक आचार्य आर्यरक्षित के विशिष्ट ध्यानयोगी शिष्य थे। उनका जन्म वी0नि0 550 (वि0सं0 80) में हुआ। वे वी0नि0 567 में संयमी बने। आर्यरक्षित से नौ पूर्वों का ज्ञान ग्रहण करने में ये सफल हुए। सतत चिंतन-परावर्तन तथा प्रबल ध्यान-साधना में संलग्न रहने से ये काया से अति कृश थे। काय-संस्थान की कृशता से उनका दुर्बलिका नाम भी सार्थक-सा लगता था। एक बार एक बौद्ध भिक्षु आचार्य आर्यरक्षित के पास आए। प्रसंगवश उन्होंने कहाजैसे विशिष्ट ध्यान-साधक हमारे संघ में हैं वैसे आपके संघ में नहीं हैं। आर्यरक्षित ने दुर्बलिकापुष्यमित्र को प्रस्तुत करते हुए कहाइसकी यह कृशता ध्यान-साधना के कारण हैं।
बौद्ध भिक्षु ने शंका व्यक्‍त करते हुए कहाइनकी कृशता का कारण स्निग्धाहार का अभाव है, न कि ध्यान-साधना।
आर्यरक्षित ने उनकी शंका का निरसन करते हुए दो साधुओं को प्रस्तुत किया और बतायाइन दोनों का नाम है घृतपुष्यमित्र और वस्त्रपुष्यमित्र। इन्हें घृतलब्धि और वस्त्रलब्धि सहज प्राप्त है। ये दोनों मुनि समूचे संघ के लिए घृत और वस्त्र की आवश्यकता सहसा पूरी कर सकते हैं। बात को और स्पष्ट करते हुए कहामथुरा देश की बिलकुल अनाथ और अति कृपण महिला, जो अपने हाथ से कपास बीन-बीन कर वस्त्र बनाती है और उससे ही अपनी आजीविका चलाती है पर वह कृपण महिला भी श्रमण वस्त्रपुष्यमित्र के उपस्थित होने पर अपने आजीविका के साधन उस वस्त्र को सहर्ष इन्हें प्रदान करते हुए तनिक भी नहीं झिझकती। वैसे ही अवंती प्रदेश की कृपण गर्भिणी महिला, जो आसन्‍नप्रसवा हो, पति ने छह महीनों तक याचना करके घृत को इकट्ठा किया हो, पति यदि माँगता है तो उसे वह नहीं देती पर इस घृतपुष्यमित्र के समुपस्थित होते ही वह सारा का सारा घृत इसे सहर्ष देकर पुलकित हो उठती है। ऐसे मुनि जिस संघ में हों वहाँ पौष्टिक भोजन का अभाव रह ही कैसे सकता है? फिर भी बौद्ध भिक्षु उनकी परीक्षा लेने के लिए अपने साथ ले गए। सरस और पौष्टिक भोजन प्रतिदिन कराते रहने पर भी मुनि का शरीर कृश होता गया। दुर्बलिकापुष्यमित्र के ध्यान-साधना के बल में कुछ भी अंतर नहीं आया। तब भिक्षुओं ने आपकी ध्यान-साधना का लोहा माना। आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्रये तीनों पक्ष उजागर थे। उनके अध्यात्म जीवन की सफलता का प्रमुख निमित्त उनकी ध्यान साधना थी। बौद्ध उपासकों को भी आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र की साधना से अंत:तोष प्राप्त हुआ था। जैनशासन की आचार्य परंपरा में आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र विशिष्ट ध्यानयोगी के रूप में विश्रुत हैं। समय-संकेतआर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र लगभग सत्तरह वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। संयम पर्याय के पचास वर्षीय काल में बीस वर्ष तक उन्होंने आचार्य पद के दायित्व का कुशलतापूर्वक वहन किया। विशिष्ट ध्यान-साधना से आत्मा को भावित करते हुए वी0नि0 917 (वि0सं0 147, ई0 सन् 90) में वे स्वर्ग-संपदा के स्वामी बने। (क्रमश:)