केवल कल्पना से नहीं पुरुषार्थ से सिद्धि प्राप्त होती है : आचार्यश्री महाश्रमण
बही, 2 जुलाई, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि, समयज्ञ, आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: लगभग 12 किमी का विहार कर बही ग्राम में पधारे। मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए महातपस्वी ने फरमाया कि क्षमा साधना का भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है और असल व्यवहार का भी वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सहन कर लेना भी कईयों के लिए बड़ा कठिन होता है।
सहिष्णुता को तीन संदर्भों में देखा जा सकता हैशारीरिक सहिष्णुता, वाचिक सहिष्णुता और मानसिक सहिष्णुता, शरीर संबंधी कठिनाई को सहज कर लेना शारीरिक, सहिष्णुता है। जिस आदमी में सहन करने का मादा-सामर्थ्य होता है, उसका कार्य कुछ निर्बाध कर सकता है। विचलित होना दुर्बलता है।
शरीर सक्षम है, तो दूसरों की सेवा की जा सकती है। शरीर में जब तक सक्षमता है, बढ़िया-अच्छा काम कर लेना चाहिए। गुरुदेव तुलसी ने कोलकाता व दक्षिण भारत की यात्रा की थी। ये शरीर की सक्षमता थी जो यात्रा कर ली। बड़े काम सक्षमता सापेक्ष होते हैं। भाग्य का योग हो तभी शरीर सक्षम रह सकता है।
हमारे जीवन में भाग्य की भी एक भूमिका होती है। काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ, नियति। आचार्य तुलसी 22 वर्ष की आयु में ही तेरापंथ के आचार्य बन गए थे, तो यह उनके भाग्य ने साथ दिया है। बिना भाग्य के तेरापंथ धर्मसंघ का सम्राट बन जाना मुश्किल लगता है। व्यक्तिगत रूप मैं भी भाग्यवाद पर विश्वास करने वाला हूँ।
भाग्यवाद मुझे यथार्थ से युक्त तत्त्व लगता है। भाग्यवाद को तो मानता हूँ, पर भाग्य भरोसे बैठने को अच्छा नहीं मानता हूँ। पुरुषार्थ को छोड़ो मत। पुरुषार्थ और भाग्य का संबंध भी हो सकता है। आदमी को पुरुषार्थ करना चाहिए।
दो शब्द हैं, ज्ञातव्य और कर्तव्य। ज्ञातव्य यानी जानने योग्य। कर्तव्य क्या है, करने योग्य। भाग्यवाद ज्ञातव्य है, पुरुषार्थवाद कर्तव्य है। करते-करते कुछ मिल सकता है।
अभ्यास से सिद्धि प्राप्त हो सकती है। केवल कल्पना से नहीं, पुरुषार्थ-अभ्यास करने से कार्य हो सकते हैं। ‘श्रम करो, सफल बनो।’ बाल वय में विद्या का अर्जन नहीं किया तो कमी रह जाती है। अग्रणी से ग्रहण करने का अभ्यास करे। पुरुषार्थ से जो मिलता है, वो किसी दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
जो चीज सुख से मिल गई है, वो दु:ख आने पर जा सकती है। परिचय से प्राप्त करो। अनेक ग्रंथों से कर्मवाद की बात जानी जा सकती है। करने की जहाँ बात है, वहाँ भाग भरोसे नहीं पुरुषार्थ करो। करते रहोगे तो कहीं पहुँच सकोगे।
अध्ययन करना है, तो उसके पीछे पड़ो। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी व्याकरण होती है। व्याकरण का ज्ञान नहीं है, तो भाषा पर अधिकार होना मुश्किल है। भाषा का प्राणतत्त्व व्याकरण होता है।
व्याकरण का ज्ञान नहीं है, तो वह आदमी भाषा जगत में अंधा है। व्याकरण तो अलूणी शिला है। व्याकरण सीखने के लिए समर्पण करना पड़ता है। धोको, रटो, कंठस्थ करो। चितारणा करो, पूछो-जिज्ञासा करो। जिज्ञासा ज्ञान को पैदा करने वाली होती है। लिखना करो तो व्याकरण सीखा जा सकती है।
सहिष्णुता की बात है, तो परिश्रम करो। शारीरिक सहिष्णुता के साथ वाचिक सहिष्णुता भी रहे। कोई कह दे, अपमान कर दे, सहन करो। मानसिक सहिष्णुता यानी जीवन में कई स्थितियाँ आ सकती हैं। मन में कष्ट आए, शांति से रहे।
हुवा और होगा कि जो,
वह सब भला नितांत।
परम शांति के हेतु है,
ये दो चिंतन कांत॥
जो स्थिति है, संतोष में रहो। दूसरों को सुखी देखकर दु:खी मत बनो। दूसरों को दु:खी देखकर सुखी मत बनो। क्षमा-सहिष्णुता है, ये हमारे जीवन में रहता है तो जीवन शांतिमय रह सकता है। आत्मा के कल्याण की दृष्टि से भी अच्छी बात हो सकती है। पूज्यप्रवर ने सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई।
समणी विनीतप्रज्ञा जी और समणी जगतप्रज्ञा जी ने आज लगभग 17 माह के अंतराल के बाद पूज्यप्रवर के दर्शन किए। परम पावन ने आशीर्वचन रूप में फरमाया कि दोनों समणी लंबे अंतराल के बाद आए हैं। खूब अच्छी साधना हो, विकास हो, समता व मनोबल अच्छा रहे।
समणी विनीतप्रज्ञा जी ने अपनी भावना श्रीचरणों में अर्पित की।
भीलवाड़ा चतुर्मास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष प्रकाश सुतरिया व भीलवाड़ा नगर परिषद के चेयरमैन राकेश पाठक पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में उपस्थित होकर अपनी भावना अभिव्यक्त की।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।