आत्मा के आसपास
आचार्य तुलसी
प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा
भगवान महावीर के बाद ध्यान की परंपरा
महाप्राण की प्रक्रिया भद्रबाहु संलग्न।
ध्यानस्थिति श्रीपुष्य की रहता निश-दिन मग्न॥
अन्य श्रमण आचार्य भी आत्म-साधना-लीन।
पाते हैं साहित्य में परंपरा प्राचीन॥
प्रश्न : भगवान महावीर ने अपने जीवन में दीर्घ उपवास के साथ ध्यान-साधना को भी विशेष महत्त्व दिया है। उनके जीवन-प्रसंग इस तथ्य के साक्ष्य हैं। पर उनके बाद ध्यान-परंपरा की क्या स्थिति रही? क्या उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी अपनी साधना में ध्यान को स्थान दिया है?
उत्तर : भगवान महावीर के सैकड़ों साधु अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी या केवलज्ञानी थे, उन्होंने ध्यान-साधना के बल पर ही उस स्थिति को उपलब्ध किया था। आगमों में स्थान-स्थान पर वर्णन हैझाणकोट्ठोवगयाध्यान कोष्ठक में प्रविष्टयह विशेषण ध्यान की महत्त्वपूर्ण परंपरा का सूचक है। ध्यान केवल ज्ञान की उपलब्धि में अनिवार्य तत्त्व है। शुक्ल-ध्यान की साधना किए बिना कोई भी साधक केवलज्ञान नहीं पा सकता, वीतराग नहीं बन सकता। अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान भी ध्यान-साधना की परिणतियाँ हैं। चौदह पूर्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी ध्यान की विशिष्ट भूमिका से गुजरना जरूरी है। जो साधक महाप्राण ध्यान की साधना कर लेता है, वह अंतर्मुहूर्त में चौदह पूर्वों का पुनरावर्तन करने की क्षमता अर्जित कर लेता है। इस संदर्भ में आचार्य भद्रबाहु का नाम उल्लेखनीय है। आचार्य भद्रबाहु भगवान महावीर के आठवें पट्टधर थे। वे ध्यान और श्रुत की परंपरा के समानांतर पोषक थे। श्रुतकेवली की परंपरा में उनका स्थान पाँचवाँ था। भद्रबाहु का जन्म वीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी में हुआ। वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में वे आचार्य संभूतविजय के बाद आचार्य बने। आचार्य बनकर वे नेपाल गए। वहाँ उन्होंने शांत-एकांत पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना प्रारंभ की।
उस समय जैन मुनियों का विहरण क्षेत्र भयंकर दुष्काल से ग्रसित था। दुष्काल में भिक्ष दुर्लभ हो गई। फलत: अनेक श्रुत-संपन्न मुनि दिवंगत हो गए। आचार्य भद्रबाहु के अतिरिक्त एक भी चतुर्दशपूर्वी मुनि नहीं बचा। श्रुत-परंपरा की अविच्छिन्नता के लिए कुछ मुनियों ने तत्काल नेपाल की ओर प्रस्थान कर दिया। नेपाल पहुँचकर उन्होंने भद्रबाहु से प्रार्थना की, ‘श्रमण-संघ ने आपको सादर आमंत्रित किया है, दृष्टिवाद की वाचना के लिए। आप वहाँ पधारें और श्रमण-संघ पर अनुग्रह कर उसे अपनी ज्ञानराशि से लाभान्वित करें। आचार्य भद्रबाहु ने संघ का आवेदन सुना, पर स्वीकार नहीं किया। वे अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य साधना को बना चुके थे। उन्होंने अपने विशिष्ट ज्ञान के दर्पण में अपने आयुष्य की अल्पता का प्रतिबिंब देखा और अन्य सब प्रवृत्तियों को छोड़कर आत्म-केंद्रित हो गए। उन्होंने अपने जीवन को महाप्राण-ध्यान की साधना में ही समर्पित कर दिया। इस बात से श्रमण-संघ नाराज हुआ। उसके द्वारा बाध्यता उपस्थित कर देने पर उन्होंने कुछ शर्तों के साथ चौदह पूर्वों की वाचना देने की सहमति अवश्य दी, किंतु अपने ध्यान के क्रम को नहीं तोड़ा।
भगवान महावीर की उत्तरकालीन परंपरा के ध्यान-साधकों में दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम हैदुर्बलिका पुष्यमित्र का। दुर्बलिका पुष्यमित्र वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में जन्में और सातवीं शताब्दी में दिवंगत हुए। वे युगप्रधान आचार्य आर्यरक्षित के शिष्य थे। स्वाध्याय और ध्यान उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। वे चौदह पूर्वों में नौ पूर्वों के ज्ञाता थे। अनवरत स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न रहने के कारण उनका शरीर अत्यंत कृश था। एक बार कुछ बौद्ध भिक्षुओं (उपासकों) ने पुष्यमित्र की ध्यान-साधना के संबंध में संदेह व्यक्त किया। उनको प्रतीति कराने के लिए आर्यरक्षित ने पुष्यमित्र को बौद्ध-भिक्षुओं के विहरण-प्रदेश में कुछ समय तक रहने की अनुज्ञा दी। वहाँ उनकी व्यवस्थित ध्यान-साधना को देखकर बौद्ध-भिक्षुओं और उपासकों को अपनी जिज्ञासा का समाधान मिल गया। दुर्बलिका पुष्यमित्र अपने जीवन के आखिरी क्षणों तक ध्यान के विशेष प्रयोग करते रहें।
भद्रबाहु और दुर्बलिका पुष्यमित्रइन दो आचार्यों की संक्षिप्त चर्चा मैंने यहाँ की है। इतिहास की प्रामाणिक खोज की जाए तो न जाने कितने ध्यान-साधक आचार्यों और मुनियों का परिचय मिल सकता है, जिन्होंने अपनी साधना में ध्यान को प्रमुखता देकर विच्छिन्न होती हुई जैन साधना पद्धति को उजागर किया।
(क्रमश:)