साँसों का इकतारा

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साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

यह अमियपगी मंगल वेला
रसभीनी ॠतु नयनाभिराम
निष्ठापंछी के पंख उगे
तुम ज्योतिपुंज तुमको प्रणाम॥

प्राणों में नव पुलकन भर दे
ऐसा अनुपम मधुमास खिला
नित नए चांद तुम उगा सको
इतना असीम आकाश मिला
जीवन का कागज प्रस्तुत है
अब लिखो गीत तुम अविश्राम॥

खुशियों के पल उजले-उजले
मन के सारे संताप हरे
खोया पथ बने स्वयं मंजिल
गूंगे अधरों पर स्वर उभरे
सांसों की किश्ती सौंप तुम्हें
हो गई सहज मैं पूर्णकाम॥

किरणों की डोर थाम कर में
सिंदूरी सुबह उतर आई
तम सागर में जो नाव फंसी
छाई उस पर भी अरुणाई
अब चाह जगे क्यों यात्रा की
जब यहां विश्‍व के सभी धाम॥

विषबुझी हवाएं इस युग की
आशा के स्वप्न झरे सारे
चिंतन के तट पर खामोशी
दूषित कुदरत के गलियारे
क्यों सींचूं तुलसी का पौधा
तुलसी मेरे सम्मुख ललाम॥

जब-जब कर गौर तुम्हें देखा
तुम लगे नित्य रमणीय रूप
नभ में सतरंगे इंद्रधनुष
प्राणों पर उतरी दिव्य धूप
निष्कामभाव से बांट रहे
पाथेय सुधामय सुधाधाम!

जो लगे तुम्हारी अर्चा में
जीवन के पल वे सफल सभी
लो नमन अजनमे भावों का
बासी होंगे जो नहीं कभी
इस अर्द्धसदी के उत्सव पर
युग करता वर्धापन प्रकाम॥

छंदों की नई जोत रचकर
अभिषेक तुम्हारा आज करूं
अल्पना उमंगों से उमगी
अपनी किस्मत पर नाज करूं
क्यों पूजूं अनदेखा ईश्‍वर
जब खड़े सामने स्वयं राम॥