उपासना
(भाग - एक)
आचार्य महाश्रमण
आचार्य प्रभव
आर्य प्रभव क्षत्रियपुत्र थे। उनके पिता का नाम विन्ध्य था। विन्ध्य पर्वत की घाटियों मे वी0नि0 पूर्व 30 (वि0पू0 500) में उनका जन्म हुआ। छोटे भाई को राज्याधिकार मिलने से उन्होंने बगावत कर दी। राज्य में लूट-खसोट करने लगे। पाँच सौ चोरों के नेता बन बैठे। जंबू के दहेज की चर्चा सुनकर सेठ ॠषभदत्त के घर में अपने साथियों को लेकर प्रभव पहुँच गए। अवस्वापिनी विद्या से सबको निद्रित करके और तालोद्घाटिनी विद्या से तालों को तोड़कर साथियों को धन के गट्ठर बाँधने के लिए कहा। साथियों के हाथ-पैर चिपक जाने से प्रभव चौंके। ध्वनि के आधार पर वहाँ पहुँचे, जहाँ जंबू आठों पत्नियों के मध्य अध्यात्म की चर्चा कर रहे थे। जंबू की विरक्ति, अनासक्ति और संवेग रस की अभिव्यक्ति करने वाली वाणी सुनकर प्रभव प्रबुद्ध हो उठे। जंबू से कुछ प्रश्न भी किए। अंत में साथियों के साथ ही जंबू के साथ संयम व्रत स्वीकार किया।
आर्य प्रभव जंबू स्वामी के बाद आचार्य बने। ग्यारह वर्ष तक आचार्य पद पर रहे। पचहत्तर वर्ष का संयम काल था। सर्वायु एक सौ पाँच वर्ष की थी। वी0नि0 75 (वि0पू0 395) में अनशनपूर्वक स्वर्गगामी बने।