साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(52)

रोशनी का रथ तुम्हारे द्वार पर है
इस समूचे लोक को रोशन करो तुम
बंद वातायन करो उन्मुक्‍त मन के
ज्ञान के आलोक से उसको भरो तुम॥

हो रहा खामोश बौद्धिक वर्ग सारा
गीत अभिनव क्रांति के युग को सुनाओ
प्यास गहरी हो रही है हर मनुज की
नीर क्या पीयूष रस उसको पिलाओ
नगर सपनों के सजाए आदमी ने
सत्य की सौगात लेकर पग धरो तुम॥

दूसरों को जीतने की ललक गहरी
प्रबलता से जग उठी हर एक मन में
आत्मजय का मार्ग ओझल हो रहा है
झुरझुरी-सी बढ़ रही सारे बदन में
छंद आस्था के नए रचकर सलोने
पीर हिमगिरि-सी बड़ी जग की हरो तुम॥

संतुलित शैली बने इस जिंदगी की
सरज दो युगबोध की सुंदर ॠचाएँ
चेतना के शिखर पर आरूढ़ होकर
साम्य सरिता में सदा जीभर नहाएँ
प्रबल भुजबल संघ का बल साथ में है
शक्‍ति के नवोत बनकर संचरो तुम॥


(53)

सिंधु को देने बधाई चपल लहरें आ रही हैं
सूर्य का अभिषेक करने रश्मियाँ इठला रही हैं॥

किरण की ले नाव कर में तिमिर का सागर तरा है
पुलिन पर बिखरे सुखों को अंक में जग के भरा है
प्यास का अहसास क्यों जब सुधा मिलती जा रही है॥

राह मंजिल बन गई अब मुखर है सुनसान घाटी
प्रश्‍न खुद उत्तर बना है बनी चंदन आज माटी
शिशिर ॠतु मधुमास बनकर मनुज मन पर छा रही है॥

सत्य की पा दीप्ति तुमसे स्वप्न पलकों में पले हैं
जागरण है नींद में भी बुझे सब दीपक जले हैं
प्राप्त कर करुणा तुम्हारी तृप्ति साँसें पा रही हैं॥

शूल भी बन फूल कोमल बिछ गए पथ में तुम्हारे
गीत गूंगे को मिले हैं फल गए अरमान सारे
देख तुमको यामिनी भी पूर्णिमा बन आ रही है॥

(क्रमश:)