समता की साधना से स्वयं को विप्रसन्‍न बना सकते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

समता की साधना से स्वयं को विप्रसन्‍न बना सकते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन विश्‍व भारती, 20 जनवरी, 2022
आस्था के आस्थान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने महाश्रमण विहार में मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे भीतर कभी दु:ख उभर जाता है, कभी आक्रोश का भाव भी आदमी में आ जाता है। कभी अहंकार का नाग फूँफकारने लगता है। कभी लोभ अपना नृत्य करने लग जाता है। कभी अवसाद की स्थिति, उदासीनता जैसे अनेक प्रसंग हमारे भीतर हो सकते हैं। अब एक प्रश्‍न है कि कौन-सा वह तरीका है, जिससे चित्त हमारा विप्रसन्‍न रहे, प्रसन्‍न शब्द के मैं दो अर्थ करता हूँ। एक अर्थ हैखुश-हर्षित। दूसरा अर्थ हैनिर्मल-स्वच्छ। शास्त्रकार ने कहा कि अपने आपको विशेष प्रसन्‍न बनाओ। उसका उपाय बतायासमता की प्रेक्षा-अभ्यास करके हम अपने आपको विशेष प्रसन्‍न बना सकते हैं। परिस्थितियाँ अनुकूल-प्रतिकूल आ सकती हैं, हम उसके गुलाम न बनें। परवश न हों। समता इतनी संपुष्ट हो जाए कि कोई भी परिस्थिति आए, हमारी प्रसन्‍नता नष्ट नहीं हो सकती। समता छोटा सा शब्द है, पर इसकी प्रकृष्ट साधना मुश्किल से होती है। प्रशंसा में सुखी नहीं, निंदा में दु:खी नहीं बनें। निंदा हो या प्रशंसा हमारा चित्त समभाव में रहे। कोई भी स्थिति आए हम प्रसन्‍न रहें, यह एक प्रसंग से समझाया कि तपस्या के बल से समस्या जा सकती है। एक आलंबन सूत्र है, यह भी बीत जाएगा, सुखी या दु:खी न बनें। सारी स्थितियाँ नश्‍वर है। अनित्यता का अनुचिंतन करें। मानसिक प्रसन्‍नता बनी रहे।
हमारा चित्त परिस्थिति से ज्यादा परेशान न हो। कार्य तो हमारे सामने आ जाता है, पर कारण भीतर सन्‍निहित रहता है। वर्तमान में कोरोना की स्थिति चल रही है। इसमें भी समता-अभय का भाव रखें। बचाव का प्रयास करें। समता एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम विप्रसन्‍न बन सकते हैं। मैत्री का भाव रखें। कलह में नहीं जाना। गुस्सा-आवेश में न जाएँ। दूसरों की सेवा-सहयोग करें। हम दूसरों को उचित सुख-साता पहुँचाते रहें तो हमें भी प्रसन्‍नता मिल सकेगी। दूसरों को उदारता से दो। किसी ने कोई चीज माँग ली तो संभव हो सके तो उसे दे दो। चित्त प्रसन्‍न रह सकेगा। सुख-शांति मिल सकेगी। शास्त्रकार ने कहा है कि अपने आपको विप्रसन्‍न करो। निर्मल-स्वच्छ बनाओ, समता की साधना करो। चित्त निर्मल बन जाएगा। प्रसन्‍नता रह सकेगी।
समता के इस छोटे सूत्र में इतनी प्राणवत्ता होती है। छोटे सूत्र का अभ्यास हो जाए। जितना अभ्यास बढ़ता है,
हम गति-प्रगति की दिशा में भी आगे बढ़ सकते हैं।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वी कनकश्रीजी, साध्वी लावण्यश्री जी, साध्वी प्रणवप्रभाजी, साध्वी चांदकुमारी जी, साध्वी प्रांशुप्रभाजी, साध्वी पुण्यप्रभाजी, साध्वी प्रतिभाश्री जी, साध्वी सुमनश्री जी आदि साध्वियों ने गीत व वक्‍तव्य के द्वारा अपनी भावना व्यक्‍त की। इस दौरान आचार्यश्री के दर्शनार्थ उपस्थित जैन भारती मान्य विश्‍वविद्यालय की कुलाधिपति सावित्री जिंदल ने भी पूज्यप्रवर के दर्शन कर अपनी भावनाओं को श्रीचरणों में रखा तो आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि विश्‍वविद्यालय तथा स्वयं का भी निरंतर विकास होता रहे। मंगल प्रवचन के कुछ समय पश्‍चात आचार्यश्री मान्य विश्‍वविद्यालय एवं कालू कन्या महाविद्यालय के अवलोकन हेतु भी पधारे। कुलाधिपति सावित्री जिंदल, कुलपति बच्छराज दुगड़, डायरेक्टर आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने आचार्यप्रवर को गतिविधियों की जानकारी देते हुए परिसर की अवगति दी। इस दौरान विद्यार्थियों व शिक्षण कार्य से जुड़े लोगों को पूज्यप्रवर के दर्शन और मंगल आशीर्वाद से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।