लोभ की चेतना को कम करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण
ढोढ़र, रतलाम, 28 जून, 2021
ज्ञानपुंज आचार्यश्री महाश्रमण जी आत प्रात: विहार कर सरस्वती शिशु विद्या मंदिर पधारे। प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए ज्ञानमूर्ति ने फरमाया कि चार कषायों में चौथा कषाय हैलोभ। गुस्सा, मान-अहंकार, माया भी कषाय है। तो लोभ भी कषाय है। चारों कषायों में सबसे ज्यादा लंबे काल तक रहने वाला कषाय एक संदर्भ में लोभ है।
साधु साधना करते-करते एक दुराहे पर पहुँचता है। आठवें गुणस्थान से दो रास्ते निकलते हैं। एक रास्ता उपशम श्रेणी का, दूसरा रास्ता क्षपक श्रेणी का है। उपशम श्रेणी का रास्ता बंद गली का रास्ता है। जहाँ जाकर वापस आना पड़ता है। वहाँ आगे मंजिल की कोई बात नहीं है। वह ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है। वापस नीचे गिरना ही पड़ेगा, कोई उपाय ही नहीं है।
उपशम श्रेणी की अपेक्षा क्षपक श्रेणी का रास्ता बढ़िया है। आठवें के बाद क्षपक श्रेणी हो तो उसी जन्म के बाद मोक्ष अवश्यसंभावी है, ऐसा प्रतीत होता है। चार कषायों में से प्रथम तीन कषाय तो नौवें गुणस्थान में ही समाप्त हो जाते हैं। अंत में एक लोभ बचता है। दसवें गुणस्थान तक भी लोभ सूक्ष्म संपराय में विद्यमान रहता है और कषायों को आश्रय देने वाला लोभ कषाय हो सकता है।
ये लोभ की वृत्ति सामान्य आदमी में होती है। लोभ से हिंसा-झूठ ये प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं। अशुभ योगों के रूप में हो सकती है। कहा जाता है कि पाप का बाप लोभ है। सब पापों की जड़ में ये लोभ काम करता है। लोभ को जीतने का प्रयास करें। लोभ को जीतने का उपाय है, संतोष को धारण करो।
प्रतिपक्ष की भावना करने से पक्ष को खत्म करने का प्रयास हो सकते हैं। लोभ को अलोभ से जीता जा सकता है। ये सब अभ्यास, अनुप्रेक्षा, संकल्प की बातें हैं। त्याग की भावना को बढ़ाएँ तो लोभ को कृश करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। जिसका लोभ खत्म हो गया, मानो उसका दु:ख मोटा-मोटी रूप में खत्म हो गया है।
जिसके लोभ नहीं है, उसके फिर परिग्रह भी नहीं होता। साधु के सर्व परिग्रह का आजीवन त्याग होता है। लोभ और अपरिग्रह में विरोध है। गुरुदेव तुलसी के दिल्ली के पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रसंग को समझाया। साधु में अपरिग्रह की चेतना होनी चाहिए। एक प्रसंग से समझाया कि अपरिग्रही साधु को ही गुरु बनाना चाहिए। जिसने त्याग दिया, उसका सब हो गया। अकिंचन साधु त्रिलोकी का नाथ हो सकता है।
परिग्रह है तो हिंसा को मौका मिल सकता है। आगमों में आरंभ और परिग्रह का जोड़ा बताया गया है। साधु इनके त्यागी होते हैं। गृहस्थ यह सोचेमैं सदा आरंभ जीवी, साधु अहिंसा शूर है---। गृहस्थ सोचे कि मैं साधु के सहयोग में संविभागी बनूँ। मेरा परिग्रह साधु के काम आएगा तो वह व्रत में चला जाएगा। साधु की संयम की साधना में गृहस्थ सहयोगी बने।
धन्य है, वे साधु जो अपरिग्रही है। गरीब वह है, जो परवशता में अभाव भोगता है। साधु तो स्ववशता से त्यागी बने हैं। साधु तो अमीरों से भी अमीर है। जो परिग्रह को छोड़ देता है, वो महात्यागी है। परिग्रही को चैन नहीं मिलता है। आदमी अपरिग्रह की दिशा में आगे बढ़ें। लोभ की चेतना को कम करने का प्रयास करें। अलोभ से लोभ को हम जीते, तो कभी मोक्ष की प्राप्ति भी हम कर सकेंगे।
तेरापंथ धर्मसंघ की एक विशिष्ट संस्था जैन विश्व भारती। उसके द्वारा अनेक कार्य संपादित होते हैं, उनमें एक कार्य है, साहित्य प्रकाशन आदि का। जैविभा के अध्यक्ष मनोज लुणिया ने एक पुस्तक ‘विनय की विलक्षण साधिका-साध्वीश्री विनयश्री ‘प्रथम’ का जीवन-वृत्त जो साध्वी विश्रुतप्रभा जी ने लिख है, पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में अर्पित की। आगम-मंथन प्रतियोगिता तेरहवाँ भाग रायषसेणियं आगम प्रतियोगिता की प्रश्न-पुस्तिका भी पूज्यप्रवर को समर्पित की।
पूज्यप्रवर ने इस प्रसंग पर फरमाया कि ये दो चीजें जैविभा की ओर से रायपसेणियं पर आधारित प्रश्न-पुस्तिका है। रायपसेणियं में राजा परदेशी का आख्यान है। आस्तिक-नास्तिक दर्शन को समझने के लिए ये रायपसेणियं हैं। सुंदर कथानक-घटना प्रसंग है। इससे जुड़ने वाले लोग हैं, वो मंथन करें तो नवनीत भी मिल सकता है।
साध्वी विनयश्री जी ‘प्रथम’ की माँ साध्वी केशरजी थी। उनका यह जीवन-वृत्त पाठक वर्ग को अच्छी धार्मिक-आध्यात्मिक प्रेरणा देने वाला सिद्ध हो, मंगलकामना। जैविभा जो ऐसे उपक्रमों के मूल में है, ज्ञान की बहुत अच्छी प्रवृत्ति है। जैविभा अच्छा धार्मिक, आध्यात्मिक सहयोग देती रहे।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि अज्ञान दु:ख का कारण होता है।