अपनी आत्मा ही अपनी त्राण बन सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण
अनंत आस्था के आस्थान आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: निम्बाहेड़ा से प्रस्थान कर सतखंडा पधारे। परम पावन ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी सुरक्षित रहना चाहता है। बड़े-बड़े राजनेता आते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए कितना ध्यान दिया जाता है। सिक्योरिटी की कहीं-कहीं कठोर और बड़ी व्यवस्था होती है कि व्यक्ति सुरक्षित रह सके।
सुरक्षा बड़ों के लिए अपेक्षित हो सकती है, तो छोटों को भी सुरक्षा चाहिए। तीर्थंकर जैसे कोई व्यक्ति भले कह दे कि मुझे सुरक्षा नहीं चाहिए। भगवान महावीर का ग्वाले वाला प्रसंग बताते हुए फरमाया कि इंद्र ने कहा था कि आपकी सेवा में रह जाऊँ। भगवान ने फरमायादेवराज! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं, होगा नहीं कि तीर्थंकर बनने वाले व्यक्ति किसी सुरक्षा घेरे में रहकर साधना करें और केवलज्ञान को प्राप्त करें। वे अपने पुरुषार्थ, वीर्य, पराक्रम के आधार पर केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं।
व्यवहार में सुरक्षा का भी महत्त्व है। एक तरह से सबसे बड़ी सुरक्षा अपने पुण्य होते हैं। कभी रक्षक भी भक्षक बन जाए। बाड़ ही खेती को खाने लग जाए तो क्या भरोसा करें। पुण्य है, तो सुरक्षा है। आदमी का पुण्य प्रबल है तो किसी में मारने की ताकत नहीं है। पुण्य क्षीण है, पाप प्रबल है तो बचाने की किसी में ताकत नहीं है।
आदमी सुरक्षा के लिए किसी की शरण में रहे। शास्त्रकार ने एक निश्चय नय की बात कही है कि जो स्वजन निकट के लोग हैं, जिनको तुम अपना मानते हो, वे तुम्हें शरण देने वाले नहीं बनेंगे, त्राण देने वाले नहीं बनेंगे। तुम भी उनके लिए त्राण और शरण देने में समर्थ नहीं बन पाओगे।
व्यवहार में तो त्राण-शरण होते हैं। मौके पर आपस में सहयोग भी करते हैं। राज-परंपरा में प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य होता था। वह राजा कुत्सित राजा है, जो प्रजा की रक्षा नहीं करता। राजा के तीन कर्तव्य होते हैंसज्जनों की रक्षा करना, असज्जन लोगों पर नियंत्रण करना, आश्रित प्रजा का भरण-पोषण करना। राजा हो चाहे सरकार या प्रशासन जो भी व्यवस्थाएँ हैं, इनका काम है, प्रजा की सुरक्षा करना।
सेवा है, वो भी एक त्राण का प्रयास है। इतनी सारी व्यवस्थाएँ त्राण-शरण के लिए ही होती है। व्यवहार में एक सीमा तक त्राण-शरण की बात सही है, पर आगम की बात भी सही लग रही है कि एक सीमा तक कोई त्राण-शरण दे दे, पर वास्तव में कोई हमारा त्राण-शरणदाता नहीं बन सकता।
यह कोई त्राण-शरण का जिम्मा नहीं ले सकता है कि मैं मनुष्य की मृत्यु के मुख में जाने से बचा लूँगा। मौत नहीं आ सकती। जो जन्मा है, उसको मौत आएगी ही आएगी। यहाँ कोई त्राण-शरण नहीं है। बीमारी हो या बुढ़ापा मौत से कोई अपवाद नहीं, उससे कोई नहीं बचा सकता।
मौत से बचाने के लिए कोई किसी का त्राण-शरण नहीं हो सकता। धर्म शरण है, उससे यह स्थिति बन सकती है कि मौत को आने का स्थान ही नहीं मिल सकता। धर्म हमारा त्राण-शरण बन सकता है। इसकी शरण में जाने के बाद, उस भूमिका में जाने के बाद न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, न रोग है, न शोक कुछ नहीं है। इन सबसे मुक्ति है।
वो शरण धर्म के द्वारा प्राप्त हो सकती है। धर्म अपनी आत्मा में ही है। अपनी आत्मा अपनी त्राण बन सकती है। थावच्चा पुत्र के प्रसंग से समझाया कि मरना क्या होता है। जो भी जन्मा है, एकदिन तो मरना ही पड़ेगा। उसका उपाय तो तीर्थंकर भगवान की शरण है, वे मृत्यु से छुटकारा दिला सकते हैं। हम धर्म की शरण में रहें तो पूर्णतया सुरक्षित एक भूमिका में जाने के बाद बन सकते हैं।